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(१८) है। मगर सद होतो खिवेद, पुरुषवेद नावेद इस तीनोंकको होते है। परीहार विशुद्ध संयम पुरुष वेद पुरुष नपुंसकोको हो है सुक्ष्म यथास्थान यह दोनो संगम अवेदी होते है जिस्मे उपक्षांत पदी (१०-११-गु०) और क्षिण अवेदी (१०.११.१३.११) गुणस्पाम) होते है इति द्वारम् ।
(१) राम-ग्यार संथम सरागी होते है क्याख्यात सं० वित रागी होते है सो उपशान्त तया क्षिग वीतरागी होते है।
(१) कल्प- कल्पके पांच भेद है।
(१) स्थितकाम-(१) खाप (१) उदेशीक आहार कल्ल (१) रानपण्ड (१) शय्यातपण्ड (५) मासीकल्प (६) चतुर्मासीक कल्प (७) व्रतकरूप (८) प्रतिक्रमणकल्प (९) कृतकर्मकल्स (१७) पुरुषजेटकल्प एवं (१०) प्रकारके कल्प प्रथम और चरम बिनों के साधुओंके स्थितास है।
(२) अस्थित कल्प पूर्वको १० कस काहा। वह मध्यमके १२ तीर्थकरोंके मुनियोंके अस्थित कल्प है क्योंकि (१) शय्यातर बत, कृतकर्म, पुरुष जेष्ट, यह च्यार करतस्थित है शेष छेपक अस्थित है विवरण पर्युषण कल्पमें है।
(३) स्थिवर कल्प-मर्यादापूर्वक १४ उपकरण रखे गुरुकुल बासो सेवन करे गच्छ संग्रहत रहै । और मी मर्यादा पालन करे।
(१) बिनकल्प-जधन्य मध्यम उत्कृष्ट उत्सर्ग पक्ष स्वीकार कर अनेक उपसर्ग सहन करते जंगलादिमें रहे देखो नन्दीसूत्र विस्तार ।