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भावार्थ-चल्लु तपमें दोषोंकी आलोचना कर तप लेवे ता स्वल्प तपश्चर्या करनेसे प्रायश्चित्त उतर जावे, और पारणा करके तप करनेसे बहुत तप करना पडे. इस हेतुसे साथ हीमें लगेतार तप करवाय देना अच्छा है. तपकी विधि अनेक सूत्र में है.
(३३) जो मुनि, मायारहित तथा मायासहित आलोचना करी, उसको आचार्य ने छ मासिक तप प्रायश्चित्त दीया है, उसी तपका अन्दर वर्तते मुनि, ओर दोय मासिक प्रायश्चित्त आवे, ऐसा दोषस्थानको सेवन कीया, और उस स्थानकी आलोचना अगर मायारहितकी हो, तो उस तपके साथ वीश रात्रिका तप सामेल कर देना. कारण-पहला तप करते उस मुनिका शरीर क्षीण हो गया है. अगर मायासंयुक्त आलोचना करी हो तो दो मास और वीश रात्रि पहलेके (छेमासीक तप) तपके साथ मिला देना चाहिये. परन्तु उस तपसी साधुको पीछेकी आलोचनाका हेतु, कारण, अर्थ ठीक संतोषकारी वचनोंसे समझा देना चाहिये हे मुनि! जो इस तपके साथ तप करेंगे, तो दो मासकी जगाहा वीश रात्रिमें प्रायश्चित्त उतर जावेंगा, अगर यहां न करेंगे, तो तपस्याका पारणा करके भी तेरेको छे मासका (मायासंयुक्त तो तीन मासका ) तप करना होगा. इस वखत तप अधिक करेंगे तो यह हमारा साधु, तुमारी वैयावच्च विगेरहसे सहायता करेंगा, इत्यादि. वह साधु इस बात को स्वीकार कर उस तपको चाहे आदिमें, चाहे मध्य में, चाहे अन्तमें कर देवे. जितना ज्यादा परिश्रम हो, उसे मुनि कर्मनिर्जराका हेतु समझे.
(३४) एवं पंच मासिक प्रायश्चित्त विशुद्ध करते बीचमें दो मासिक प्रायश्चित्त स्थान सेवन कर आलोचना करे, उसकी विधि ३३ वां सूत्र माफिक समझना.