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-अपने कल्याणके लीये विशुद्ध भावसे आलोचना करना, और . आचार्य पास आके विशुद्ध भावसे ही आलोचना करी.
(२) आलोचना विशुद्ध भावसे करनेका विचार कीयाथा, फिर अधिक प्रायश्चित्त आनेसे, मान, पूजाकी हानिके ख्यालसे मायासंयुक्त आलोचना करे.
(३) पहले मायासंयुक्त आलोचना करनेका विचार कीया था, परन्तु मायाका फल संसारवृद्धिका हेतु जान निष्कपट भावसे आलोचना करे.
(४) भवाभिनन्दी-पहला विचार भी अशुद्धं और पीछेसे आलोचना भी कपटसंयुक्त करे कारण कर्मों की विचित्र गती है. यह आठ भांगा सर्व स्थान समझना. भव्यात्मा मुनि, अपने कीये हुषे कर्म (पापस्थान)को सम्यक् प्रकारसे समझके निर्मल चित्तसे आलोचना कर आचार्यादि शास्त्रापेक्षा प्रायश्चित्त देवे, उसे अपने आत्माकी शाखसे तपश्चर्या कर प्रायश्चित्तको पूर्ण करे.
(३०) एवं बहुवचनापेक्षा भी समझना. . (३१), चतुर्मासिक साधिक चतुर्मासिक, पंच मासिक साधिक पंचमासिक प्रायश्चित्त स्थान सेवन कर पूर्वोक्त आठ भांगोंसे आलोचना करे, उस मुनिको यथावत् प्रायश्चित्त तपमें स्थापन करे, उस तपमें वर्तते हुवेको अन्य दोष लग जावे, तो उसकी आलोचना दे उसी चल्लु तपमें वृद्धि कर देना अगर तप करते समय वह साधु असमर्थ हो तो अन्य साधु, उन्होंके वैयावञ्च में सहायता निमित्त रखे, उसे तप पूर्ण कराना आचार्यका कर्तव्य है.
(३२) एवं बहुवचनापेक्षा भी समझना