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खावे, न सूत्रार्थकी वाचना देवे [द्वेषके कारणसे] तो वह आचार्य प्रायश्चित्तका भागी होता है. भावना पूर्ववत्.
(२७) ,, आचार्योपाध्यायके वाचना दीये विगर अपनेही मनसे सूत्रार्थ, वांचे, वंचावे, वांचतेको अच्छा समझे.
गवार्थ-जैन सिद्धांत अति गंभीर शैलीवाले, अनेक रहस्यसे भरे हुवे, कितनेक शब्द तो खास गुरु गमताकी अपेक्षा रखनेवाले है, वास्ते गुरुगमतासे ही सूत्र वांचने की आज्ञा है. गुरुगमता विगर सूत्र वांचनेसे अनेक प्रकारकी शंकाओं उत्पन्न होती है. यावत् धर्मश्रद्धासे पतित हो जाते है.
(२८) ,, अन्यतीर्थी, और अन्य तीर्थीयोंके गृहस्थोंको सूत्रार्थकी वाचना देवे, दिलावे, देतेको अच्छा समझे.
भावार्थ-उन्ह लोगोंकी प्रथमसेही मिथ्यात्वकी वासना ह. दयमें जमी हुइ है. उसको सम्यक ज्ञानही मिथ्या हो परिणमता है. कारण-वाचना देनेवाले पर तो उसका विश्वासही नहीं. विनय, भक्तिहीनको वाचना न देवे. कारण नन्दीसूत्रमे कहा है कि सम्यसूत्र भी मिथ्यात्वीयोंकों मिथ्यारूपमे परिणमते है.
(२९) ,, अन्यतीर्थी, अन्यतीर्थीयोंके गृहस्थोंसे सूत्रार्थकी याचना ग्रहन करे, करावे, करतेको अच्छा समझे.
भावार्थ-अन्यतीर्थी ब्राह्मणादि जैनसिद्धान्तोंके रहस्यका नानकार न होनेसे वह यथावत् नहीं समझा सके, न यथार्थ अर्थ भी कर शके. वास्ते ऐसे अज्ञातोंसे वाचना लेना मना है. इतनाही नही किन्तु उन्होंका परिचय करनाही बीककुल मना है. आजकाल कीतनीक निर्नायक तरूण साध्वीयों स्वच्छन्दतासे अज्ञ ब्राह्मणों पासे पढति है. जोस्का नतीजा प्रत्यक्ष अनुभव कर रही है.