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रांगसूत्र ही पढना चाहिये, अगर ऐसा न पढावे, उन्होंके लीये यह प्रायश्चित्त बतलाया हुवा है.
(२२) ,, 'अप्राप्त' वाचना लेनेको योग्य नहीं हुवा है. द्र व्यसे बालभावसे मुक्त न हुवा हो, अर्थात् काख में रोम (बाल) न आया हो, भावसे आगम रहस्य समझनेकी योग्यता न हो, धैर्य, गांभीर्य, न हो, विचारशक्ति न हो, ऐसे अप्राप्तको आगमोंको वाचना देवे, दिलावे, देतेको अच्छा समझे.
(२३), 'प्राप्त' को आगमोंको वाचना न देवे, न दिला. वे, न देतेको अच्छा समझे. द्रव्यसे बालभावसे मुक्त हुवा हो, का. समें रोम आगये हो, भावसे सूत्रार्थ लेनेकी, ग्रहन करनेकी, तत्व विचार करनेकी, रहस्य समझनेकी योग्यता हो, धैर्य, गांभीर्य, दीर्घदर्शिता हो, ऐसे प्राप्तको आगमोंकी वाचना न देवे. ३
भावार्थ-अयोग्यको आगमज्ञान देना, वह बडा भारी नुकशानका कारण होता है. वास्ते ज्ञानदाता आचार्योपाध्यायजी महाराजको प्रथमसे पात्र कुपात्रकी परीक्षा करके ही जिनवाणी रुप अमृत देना चाहिये. तां के भविष्य में स्वपरात्माका कल्याण करे.
( २४ ) अति बाल्यावस्थावाला मुनिको आगम वाचना
देवे. ३
(२५) बाल्यावस्थासे मुक्त हुवाको आगम वाचना न देवे.३ भावना २२-२३ सूत्रसे देखो.
(२६), एक आचार्यके पास विनयधर्मसंयुक्त दाय शिज्यों पढते है. उसमें एकको अच्छा चित्त लगाके ज्ञान-ध्यान शिखावे, सूचार्यकी वाचना देवे [रागके कारणसे, दुसरेको न शि