________________
२५९
(३), प्रत्याख्यान कर वारंवार भंग करे.३ . (४), प्रत्येक वनस्पति मिश्रित भोजन करे. ३
(५), किसी कारणसे चर्म रखना पडे, तो भी रोमसहित चर्म रखे.
(६), तृणका बना हुवा पीडा (पाट-बाजोट) पलालका बना पीडा, गोबरसे लींपा हुवा पीडा, काष्टका पीडा, वेतका पीडा, गृहस्थोंके वस्त्रादिसे आच्छादित कीया हुवा पर स्वयं बैठे, अन्यको बैठावे, बैठते हुवेको अच्छा समझे. ___ भाषार्थ-उसमें जीवादि हो तो दृष्टिगोचर नहीं होते है. बैठनेसे जीवोंकी विराधना होती है. इत्यादि दोषका संभव है.
(७) ,, साध्वीकी पीछोवडी ( चद्दर ) अन्यतीर्थी तथा उन्होंके गृहस्थोंसे सीवावे. ३ इसीसे अन्य तीर्थीयोंका परिचय बढता है, पराधीन होना पडता है. उसके योग सावध होते है. इत्यादि,
(८) ,, चर्मा, जितनी पृथ्वीकायका आरंभ स्वयं करे, अन्यके पास आदेश दे करवावे, करते हुवेको अच्छा समझे. एवं अप्काय, तेउकाय, वाउकाय, वनस्पतिकायका ९.१०-११-१२
(१३) ,, सचित्त वृक्षपर चडे, चढावे, चढतेको अच्छा समझे.
(१४), गृहस्थोंके भाजनमें अशनादि आहार करे. ३ (१५), गृहस्थोंका वन पेहरे. ३
भावार्थ-वस्त्र अपनी निश्रायमें याचके नहीं लीया है, मृहस्थोंका वन है, वापरके वापिस देवे. उस अपेक्षा है. अर्थात् गृहस्थके वस्त्र मांगके ले लीया, फिर वापिस भी दे दीया, ऐसा करना साधुवोंकों नहीं कल्पै.