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भावार्थ-जैसे जैन मुनियोंके पर्युषण होते है, इसी माफिक अन्य तीर्थी लोग भी अपनी ऋषि पंचमी आदि दिनको मुकर कीया है. वह अन्यतीर्थी कहे कि-हे मुनि! तुमारा पर्युषण ह. मको करावे और हमारा पर्युषण तुम करो. ऐसा करना साधु साध्वीयोंको नहीं कल्पै.
(४८) ,, आषाढी चातुर्मासीके बाद साधु साध्वी वन, पात्र ग्रहन करे. ३
भावार्थ-जो वस्त्रादि लेना हो, वह आषाढ चातुर्मासी प्रतिक्रमण करने के पेस्तर ही ग्रहन कर लेना. बाद में कार्तिक चातुमासी तक धन नहीं ले सक्ते है.+
उपर लिखे ४८ बोलोंसे कोइ भी बोल सेवन करनेवाले साधु साध्वीको गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त होता है. प्रायश्चित्त विधि देखो वीसवां उद्देशामें.
इति श्री निशिथसूत्र-दशवां उद्देशाका संक्षिप्त सार.
(११) श्री निशिथसूत्र-इग्यारवां उद्देशा.
(१) 'जो कोइ साधु साध्वी ' लोहाका पात्र करे, करावे, करतेको अच्छा समझे.
(२) एवं लोहाका पात्राको रखे.
+ समवायांगसूत्र-“समणे भगवं महावीरे सबीसइ राइ मास वइक्रते सत्तरिएहिं राइदिएहि संसेहिं वासाबासं पज्जोसमेइ' अर्थात् आषाढ चातुर्मासीसे पचाश दिन और कार्तिक चातुर्मासिके सीत्तर दिन पहला सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करना साधुवोंको
कल्पे.