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सम्यकप्रकारसे जानना यह ज्ञानावरणीय कर्मका क्षयोपशम है. जाननेके बादमें कुसंगतका त्याग करना और सत्संगका परिचय करना यह मोहनीय कर्मका क्षयोपशम है. इस जगह शास्त्रकारोंने कुसंगतके कारणको जानके परित्याग करणेका ही निर्देश कीया है.
अगर दीर्घकालकी वासनासे वासित मुनि अपनी आत्मरमणता करते हुवे के परिणाम कभी गिर पडे तथा अकृत्य कार्य करे, उसको भी प्रायश्चित्त ले अपनी आत्माको निर्मल बनानेका प्रयत्न इस छठे और सातवे उद्देशामें बतलाया गया है. जिसको देखना हो वह गुरुगमता पूर्वक धारण कीये हुवे ज्ञानवाले महा. त्मावोंसे सुने. इस दोनों उद्देशोंकी भाषा करणी इस वास्ते ही मुलतवी रख गइ है. इति ६-७
इस दोनों उद्देशोंके बोलोंको सेवन करनेवाले साधु साध्वी योंको गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त होगा.
इति श्री लघुनिशिथ सूत्रका छठा सातवां उद्देशा.
(८) श्री निशिथसूत्रका आठवां उद्देशा.
(१) 'जो कोई साधु साध्वी' मुसाफिरखाना, उद्यान, गृहस्थोंका घर यावत् तापसोंके आश्रम इतने स्थानों में मुनि अ. केली स्त्री के साथ विहार करे; स्वाध्याय करे अशनादि च्यार प्रकारका आहार करे, टटी पैसाब जावे, और भी कोई निष्ठुर विषय विकार संबंधी कथा वार्ता करे. ३
(२) एवं उद्यान, उद्यानके घर (बंगला), उद्यानकी शाला, निजाण, घर-शालामें अकेला साधु अकेली स्त्रीके साथ पूर्वोक्त कार्य करे. ३