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(४५) कार्य पुरुषार्थसे ही प्राप्ती हो शक्ते है । और अनेक कला कौशल्य जान ध्यानादि सब पुरुषार्थसे ही होता है इतना ही नही बरके क्षुषा लागनेपर भोजन बनाना भी पुरुषार्थसे ही बनता है न कि पूर्व कर्मोसे, वास्ते सर्वकार्यों कि सिद्धि पुरुषार्थसे ही होती है गास्ते हमारा ही मत अच्छा है । *
क्रियावादीयोंके १८० भेद है यथा । कालबादीयोंका मूल च्यार भेद है यथा । (१) एक काल
* यह काल, स्वभाव, नियत, पूर्वकर्म और पुरुषार्थ, पांचों वादियों एकेक समवयकों मानते हुवे दुसरे च्यारच्यार बादीयोंको असत्य ठेराते है परन्तु उन्होंको यह ख्याल नहीं है कि एकेक . समवयसे कबी कार्यकि सिद्धि होती है अर्थात् नहीं होबे वास्ते ही शास्त्रकारोंने एकान्त बादवालों को मिथ्यात्वी केहते है । और उक्त पाचों समवय परस्पर अपेक्षा संयुक्त माननेसे कार्यकि सिद्धि होती है उन्हींकों ही सम्यग्धष्टी कहे जाते है जैसा कि एकले काळसे सिद्धि नहीं परन्तु साथमें स्वभाव भी होना आवश्य है काल स्वभाव दोनोंसे भी सिद्धि नहीं किन्तु साथमें नियत भी होना चाहिये । कालस्वभाव और नियत इन्ही तीनोंसे सिद्धि नहीं परन्तु साथमें पूर्वकर्म भी होना चाहिये । इन्ही च्यारोंमे मी सिद्धि नहीं किन्तु साथमें पुरुषार्थ भी होना चाहिये एवं जैन दर्जनमें कालस्वभाव नियत पूर्वकर्म और पुरुषार्थ इन्हीं पांचोंको सायमें रखके ही कार्यकि सिद्धि मानी गई है। नकि एकेकसे । इसी वास्ते एकान्त एकेकको माननेवालों को मिथ्यात्वी कहा है।