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मन होनेसे यह भावना उत्पन्न हुइ कि मैं इतने काल मेरे पतिके साथ भोग भोगवनेपर मेरे एकभी बालक न हुवा तो अब मुझे साध्वीजीके पास दीक्षा लेनाही ठीक है । एसा विचारकर अपने पति भद्रसेठसे पुच्छा कि मेरा विचार दीक्षालेनेका है आप मुझे आज्ञा दीरावे.
भद्रसेठने कहा हे सेठाणी!दीक्षाका काम वडाहि कठिन है सुम हालमें मेरे साथ भोग भोगवों फीर भुक्तभोगी होनेपर दीक्षा लेना। इत्यादि बहुत समजाइ परन्तु हठ करना स्त्रियोंके अन्दर एक स्वाभावीक गुण होताहै | वास्ते अपने पतिकी एक भी बातकों न मानि. तब भद्रसेठ दीक्षाका अच्छा मोहत्सवकर हजार पुरुष उठावे एसी शीविकाके अन्दर बेठाके वडेहीमोहत्सवके साथ साध्विजीके उपासरे जाके अपनी इष्ट भार्याको साध्वियोंकों शिष्यणीरूप भिक्षा अर्पण करदी अर्थात् सुभद्रा सेठाणी सुव्रतासाध्विजीके पास दीक्षा लेली। सुभद्राने पहले भी कुच्छ ज्ञान ध्यान नही कीया था अब भी ज्ञान ध्यान कुछ भी नही केवल पुत्रके दुःखके मारी. दुःखगर्भित वैरागसे दीक्षा ली थी पेस्तर एक स्वघरमें ही निवास करती थी, अब तो अनेक श्रावक श्राविकावोंका घरोंमे गमनागमन करने का अवसर प्राप्त हो गया था। - सुभद्रासाध्वि आहारपाणी निमित्त गृहस्थ लोगोंके घरों में जाती है वहां गृहस्थोंके लडके लडकियोंको देख अपना स्नेहभावसे उसको अपने उपासरेमें एकत्र करती है फीर उस बच्चोंके लिये बहुतसा पाणी स्नान करानेको अलताका रंग उस बच्चोंके हाथपग रंगनेको. दुध दहीं खांड खाजा आदि अनेक पदार्थ उस बच्चोंके खीलानेके लिये तथा अनेक खेलखीलुने उस बच्चोंको खेलनेके लिये यह सब गृहस्थीयोंके यहांसे याचना करलाना प्रारंभ करदीया । अर्थात् सुभद्रासाध्वि उस गृहस्थोंके लडके लर