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कीयाँको रमाडना खेलाना स्नानमज्जन कराना काजलटीकी करना इत्यादि घातिकर्ममें अपना दिन निर्गमन करने लगी.'
यह बात सुव्रतासाध्विजीकों खबर पडी तब सुभद्राको कहने लगी । हे आर्य! अपने महाव्रतरूप दीक्षा ग्रहनकर श्रमणी निग्रन्थी गुप्त ब्रह्मचर्यव्रत पालन करनेवाली है तो अपनेको यह गृह स्थकार्य धृतीपणा करना नही कल्पते है इसपरभी तुमने यह क्या कार्य करना प्रारंभ कीया है ! क्या तुमने इस कार्योके लियेही दीक्षा ली है ? हे भद्र इस अकृत्यकार्य कि तुम आलोचना करी और आगेके लिये त्याग करो । एसा दोय तीनवार कहा परन्तु सुभद्रासाध्धि इस वातपर कुच्छ भि लक्ष नही दीया। इसपर मर्व साध्वियों उस सुभद्राकों वार वार रोक टोक करनेलगी अर्थात कहने लगीकि हे आर्य! तुमने संसारको असार जानके त्याग कीया हे तो फीर यह संसारके कार्यको क्यों स्वीकार करती हो ? इत्यादि.
सुभद्रासाध्विने विचार किया कि जबतक मैं दीक्षा नही ली थी तबतक यह सब साध्वियों मेरा आदरसत्कार करती थी. आज मैं दीक्षा ग्रहन करने के बाद मेरी अवहेलना निंदा घृणा कर मुझे वार वार रोक टोक करती है तो मुझे इन्होंके साथही क्यों? रहना चाहिये कल एक दुसरा उपासराकि याचना कर अपने वहांपर निवास करदेना । वस ! सुभद्राने एक उपासरा याचके आप वहांपर निवास करदीया । अब तो कीसीका कहना भि न रहा। हटकना वरजना भि न रहा इसीसे स्वछंदे अपनी इच्छानुसार वरताव करनेवाली हो के गृहस्थोंके बालबचोंको लाना खेलाना रमाना स्नान मज्जन कराना इत्यादि कार्यमें मुच्छित बन गइ । साधु आचारसेभी शीथिल हो गइ। इस हालत में बहुतसे वर्ष तपश्चर्यादिकर अन्तिम आधा मासका अनसन किया परन्तु