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________________ १५८ हमलोग तो मोक्षमार्ग साधन करने के लिये केवली प्ररूपीत धर्म सुनानेका व्यापार करते है। सुभद्राने कहा कि खेर!अपना धर्मही सुनाइये। तब साध्विजीने उस पुत्रपीपासी सुभद्राकों खडे खडे धर्मसुनाना प्रारंभ किया हे सुभद्रा यह संसार असार है एकेक जीव जगतके सब जीवोंके साथ माताका भव. पिताका भव. पुत्रका भव. पुत्रीका भव इत्यादि अनन्ती अनन्तीवार संबन्ध कीया है अनन्तीवार देवतावोंकी ऋद्धि भोगवी है अनन्तीवार नरक निगोदका दुःख भी सहन किया है. परन्तु वीतरागका धर्म जिस जीवोंने अंगीकार नही कीया है वह जीव भविष्यके लिये ही इस संसारमे परिभ्रमन करता ही रेहगा. वास्ते हे सुभद्रा !तुं इस संसारको अनित्य-असार समज वीतरागके धर्मको स्वीकार करता जीससे तेरा कल्याण हो इत्यादि। यह शान्ति रसमय देशना सुन सुभद्र हर्ष-संतोषको प्राप्त हो बोली कि हे आर्य! आपने आज मुझे यह अपूर्व धर्म सुनाके अच्छी कृतार्थ करी है। हे आर्य! इतना तो मुझे विचार हुवा है कि जो प्राणी इस संसारके अन्दर दुःखी है, तृष्णाकि नदीमें झल रहे है यह सब मोहनियकर्मकाही फल है । हे महाराज! आपका वचनमें श्रद्धा है मुझे प्रतित आइ है मेरे अन्तरआत्मामें रूची हुइ है धन्य है आपके पास दीक्षा लेते है । मैं इस बातमे तो असमर्थ हुं परन्तु आपके पास में श्रावकधर्मको स्वीकार करुंगी। साध्विजीने कहा कि हे बहन!सुखहो एसा करो परन्तु शुभकार्यमें विलम्ब करना ठीक नहीं है। इसपर सुभद्रा सेठाणीने श्रावकके बारह व्रतको यथा इच्छा मर्यादकर धारण करलिया। . सुभद्राको श्रावकव्रत पालन करते कितनाएक काल निर्ग
SR No.034234
Book TitleShighra Bodh Part 16 To 20
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherRavatmal Bhabhutmal Shah
Publication Year1922
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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