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________________ १५७ की सेठाणि थी। वह अच्छी स्वरूपवान थी परन्तु वैध्या अर्थात् उसके पुत्रपुत्री कुच्छ भी नही था । एक समय सुभद्रा सेठाणी रात्रीमें कुटुम्ब चिंता करती हुइको एसा विचार हुवा कि मैं मेरा पति के साथ पंचेन्द्रिय संबन्धी बहुत कालसे सुख भोगव रहीहु परन्तु मेरे अभीतक एकभी पुत्रपुत्री नही हुवा है, वास्ते धन्य है वह जगतमें कि जो अपने पुत्रको जनम देती है-बालक्रीडा कराती है-स्तनोंका दुध पीलाती है-गीतग्यानकर अपने मनुष्यभवको सफल करती है, मैं जगतमें अधन्य अपुन्य अकृतार्थ हूं, मेरा जन्मही निरर्थक है कि मेरेको एक भी बचा न हुवा एमा आत ध्यान करने लगी। उसी समयकी बात है कि बहुश्रुति बहुत परिवारसे विहा र करती हुइ सुव्रताजी नामकी साध्विजी बनारसी नगरीमें पधारी साध्विजी एक सिंघाडेसे भिक्षा निमित्त नगरीमें भ्रमन करती सुभद्रा सेठाणीके वहां जा पहुंची। उस साध्विजीको आते हुवे देख आप आसनसे उठ सात आठ कदम सामने जा वन्दन कर अपने ची कामें ले जायके विविध प्रकारका अशन-पाण-स्वादिम' खा. दिम प्रतिलाभा ( दानदीया )" नितीज्ञ लोगोमें विनयभक्ति तथा दान देनेका स्वाभावीक गुन होता है " बादमें साध्विजीसे अर्ज करी कि हे महाराज मैं मेरे पति के साथ बहुत कालसे भोग भोगबनेपर भी मेरे एकभी पुत्रपुत्री नही हुवा है तो आप बहुत शास्त्रके जानकर है, बहुतसे ग्राम नगरादिमें विचरते है तो मुझे कोइ एसा मंत्र यंत्र तंत्र वमन विरेचन औषध भैसन्ज बतलावों कि मेरे एकाद पुत्रपुत्री होवे जिससे मैं इस बंध्यापणके कलंकसे मुक्त हो जाउं । उत्तरमेंसाध्विजीने कहा कि हे सुभद्राहम श्रमणि निग्र. न्थी इर्यासमिति यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणी है हमारेको एसा शब्द अरणोद्वारा श्रवण करनाही मना है तो मुंहसे कहना कहा रहा?
SR No.034234
Book TitleShighra Bodh Part 16 To 20
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherRavatmal Bhabhutmal Shah
Publication Year1922
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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