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हस्तिके लिये इतना अनर्थ हुवाथा वह हस्ती आगमे जल गया, हार देवता ले गया, वहलकुँमर दीक्षा धारण करली है । तथापि कोणक राजाका कोप शान्त नही हुवा ।
कोणक राजा एक निमत्तियाकों बुलवायके पुच्छा कि हे नैमित्तीक इस वैशाल नगरीका भंग केसे हो सक्ता है, निमित्तीयाने कहाकि हे राजन् कोइ प्रतित साधु हो वह इस नगरीकों भांग कर
साहित हो सक्ता है राजा कोणकने यह बात सुन एक कमललता वैश्याको बुलवाके उसको कहा कि कोई तपस्वी साधुकों लावों, वैश्या राजाका आदेश पाके वहांसे साधुकि शोध करने को गइ तो एक नदी के पास एक स्थानपर कुलवालुक नामका साधु ध्यान करताथा उस साधुका संबन्ध एसा है कि
कुलवालुक साधु अपने वृद्ध गुरुके साथ तीर्थयात्रा करनेकों गया था एक पर्वत उत्तरतों आगे गुरु चल रहेथे. कुशीष्यने पीच्छे से एक पत्थर (वडोशीला ) गुरुके पीछे डाली. गुरुका आयुष्य अधिक होने से शीलाको आति हुइ देख रहस्तेसे हुर हो गये, जब शिष्य आया तब गुरुने उपालंभ दीयाकि हे दुरात्मन्
मेरे मारने का विचार कीया था, जा कीसी औरतके योग्य से तेरा चारित्र भ्रष्ट होगा एसा कहके उस कुपात्र शिष्यको निकाल दीया.
वह शिष्य गुरुके वचन असत्य करनेकों एकान्त स्थानपर तपश्चर्या कर रहा था | वहां पर कमललता वैश्या आके साधुकों देखा. वह तपस्वी साधु तीन दिनोंसे उतरके एक शीलाकों अपनि जबां से तीनवार स्वाद लेके फीर तपश्चर्याकि भूमिकापर स्थित हो जाता था, वैश्याने उस शीलापर कुच्छ औषधिका प्रयोग (लेपन) कर दीया जब साधु आके उस शीलापर जबानसे स्वाद लेने लगा वह स्वाद मधुर होनेसे साधुकों विचार हुबाकि