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तुं मेरे एक ही पुत्र है तुझे बत्तीस ओरतो परणाई है और यह अपरिमत्त द्रव्य जो तुमारे बापदादावोंके संचे हुवे है इसको भोगवो बाद में तुमारे पुत्रादिकी वृद्धि होनेपर भुक्त भोगी हो जावोंगे फीर हम काल धर्मको प्राप्त हो जावे बादमें दीक्षा लेना।। · कुमरजीने कहा कि हे माता यह जीव भव भ्रमन करते हुवे अनेक वार माता पिता स्त्रि भरतार पुत्र पितादिका संबन्ध करता आया है कोइ कीसीको तारणेको समर्थ नही है धन दोलत राजपाट आदि भी जीवको बहुतसी दफे मीला है इन्हीसे जीवका कल्याण नही है । वास्ते आप आज्ञा दो में भगवानके, पास दीक्षा लुंगा। माताने अनुकुल प्रतिकुल बहुत समझाया परन्तु कुमरतो एक ही वातपर कायम रहा आखिर माताने यह विचारा कि यह पुत्र अब घरमे रहेनेवाला नहीं है तो मेरे हाथसे दीक्षाका महोत्सव करके ही दीक्षा दिरादुं । एसा विचार कर जेसे थाषचा शेठाणी कृष्णमहाराजके पास गइ थी ओर थावचा पुत्रका दीक्षामहोत्सव कृष्णमहाराजने किया था इसी माकीक भद्रा शेठाणीने भी जयशत्रुराजाके पास भेटणो (निजरांणा) लेके गइ और धनाकुमारका दीक्षामहोत्सव जयशत्रुराजाने कीया इसी माफीक यावत् भगवान वीरप्रभुके पास धन्नोकुमर दीक्षा ग्रहनकर मुनि वनगया इर्यासमिति यावत् गुप्त ब्रह्मचर्य व्रतको पालन करने लग गया.
जिस दिन धन्नाकुमारने दीक्षा लीथी उसी दिन अभिग्रह धारण कर लीयाथा कि मुझे कल्पे है जावजीव तक छठ छठ तप पारणा ओर पारणेके दिन भी आंबिल करना । जब पारणेके दिन आंबिलका आहार संस्पृष्ट हस्तोंसे देनेवाला देवे । यह भी बचा हुवा अरस निरस आहार वह भी श्रमण शाक्यादि माहण ब्राह्मणादि अतीथ कृपण वणीमंगादि भी उस आहारकी इच्छा न करे