________________
मैं सुदर्शन शेठ भगवान वीरप्रभुको वन्दन करनेको जाता हुँ । माली बोला कि मुझे भी साथमे ले चलो। शेठजी बोला कि बहुत अच्छी वात है । दोनों भगवानके पास आके वन्दन नमस्कार कर योग्य स्थान बेठ गये । इतनेमें तो उपसर्गरहीत रस्ता नानके ओर भी परिषदा समोसरनमें एकत्र हो गइ। परन्तु सुदर्शनकी धर्मश्रद्धा कीतनी मजबुत थी। एसैको दृढधर्मी कहते है। - भगवान वीर प्रभुने उसी परिषदाको बडे ही विस्तारपूर्वक धर्मदेशना सुनाइ अन्तिम फरमाया कि हे भव्य जीवों! अनन्ते भवोंके किये हुवे दुष्कर्मोसे छोडानेवाला संयम है इन्हीका आराधन करो वह तुमको एकही भवमें आरापार संसारसमुद्रसे पार कर अक्षय स्थान पर पहुंचा देगा।
सुदर्शनादि देशनापान कर स्वस्वस्थान पर गये । अर्जुन मालीने विचार कीया कि में पांच मास तेरह दिनोंमें ११४१ जीवोंकी घात करी है तो एसा घोर अत्याचारोंके पापसे निवृत्ति होनेका कोइ भी दुसरा रस्ता नहीं है। वास्ते मुझे उचित है कि भगवान वीरप्रभुके चरणकमलोमे दीक्षा ले आत्मकल्याण करुं । एसाविचारके भगवानके पासे पांच महाव्रतरुपी दीक्षाधारण करी। अधिकता यह है कि जिस दिन दीक्षा ली थी उसी दीन अभिग्रह कर लीया कि मुझे जावजीव तक छठ छठ तप पारणा करना। प्रथम ही छठ कर लीया । जब छठ तपका पारणा था उस रोज पेहले पहोरमें सझाय, दुसरे पहोरमे ध्यान, तीसरे पहोरमें मुहपत्ती आदि प्रतिलेखन कर वीरप्रभुकी आज्ञा ले राजगृह नगरके अन्दर समुदाणी भिक्षाके लिये अटन कर रहे थे। - अर्जुनमुनिको देखके बहुतसे पुरुष स्त्रीयों लडके युवक और