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था वह आता था, इतनेमें अर्जुन माली सुदर्शनको देखक बडा भारी कुपित होकर हाथमें सहस्रपल लोहका मुद्गल लेके मुदर्शमको मारनेको आरहा था। श्रेष्ठीने मालीको आता हुवा देखके किंचित् मात्रभी भय क्षोभ नहीं करता हुवा वस्त्राचलसे भूमिकाको प्रतिलेखन कर दोनों कर शिरपे लगाके एक नमुत्थुणं सिद्धोंको
और दुसरा भगवान् वीरप्रभुको देके बोला कि मैं पहलेही भगवावानसे व्रत लिये थे और आज भी भगवानकी साक्षीसे सर्वथा प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शन एवं अठारा पाप और च्यारों प्रकारके आहारका प्रत्याख्यान जायजीवके लीये करता हुं परन्तु इस उपसर्गसे बच जाउं तो यह सागारी संथारा पारना मुझे कल्पे है अगर इतने में काल करजाउं तो जावजीवका अनशन है एसा अभिग्रह धारण कर आत्मध्यानमें मग्न हो रहा था, शेठीजीने यह भी विचार किया था कि अज्ञानपणे बिषयकषायके अन्दर अनन्तीवार मृत्यु हुवा है परन्तु एसा मृत्यु आगे कबी भी नहीं हुवा है और जितना आयुष्य है वह तो अवश्य भोगवना ही पडेगा वास्ते ज्ञानमें ही आत्मरमणता करना ठीक है।
वर्जुनमाली सुदर्शनाश्रेष्ठीके पास आया क्रोधसे पूर्ण प्रज्वलत हो के मुगलसे मारना बहुत चाहा परन्तु धर्मके प्रभाव हाथ तक भी उंचा नहीं हुवा मालीजीने शेठीजीके सामने जाया इतने में जो मालीके शरीरमें मोगरपणि यक्ष था वह मुद्गल ले के यहां मे विदा हो गये अर्थात् निज स्थानमें चला गया ।
शरीरसे यक्ष चले जाने पर माली कमजोर हो के धरतीपर गीर पडा, इधर शेठीजीने निरूपसर्ग जांनके अपनी प्रतिमा पालन कर अनसन पारा । इतने में अर्जुनमाली सचेत हो के बोला कि आप कोन है और कहां पर जाते है । शेठीजीने उत्तर दिया कि