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________________ एक वर्ग अर्थात् दशहजार गायोंथी। तथा शकडालपुत्रके पोलासपुर बाहीर पांचसो कुंभकारकी दुकानेंथी । उसमें बहुतसा नोकर-मजुर थे कि जिसमें कितनेकको तो दिन प्रत्ये नोकरी दि जाति थी कितनेकको मास प्रति-वर्ष प्रति नोकरी दी जाती थी. वह बहुतसे नोकरों में कीतनेक मट्टीके घडे, अधघडे, झारी, कलंजरा, आदि अनेक प्रकारके बरतन वनातेथे, कितनेक नोकर पोलासपुरके राजमार्गमे बैठके वह घडादि मट्टीके वरतन प्रतिदिन बेचा करतेथे, इमीपर शकडालकुंभकारकी आजीविका चलतीथी। शकडालकुंभकार आजीवका मतिथा अर्थात् गोशालाका उपासक था। वह गोशालेका मतके अर्थको ठीक तौरपर ग्रहण कियाथा यावत् उसकी हाडहाड की मीजी गोशालाके धर्म में प्रेमानुरागता हो रहीथी, इतना हि नहीं बल्के जो अर्थ तथा परमार्थ जानताथा तो एक गोशालाका मतको ही जानताथा, शेष सर्व धर्मवालोंको अनर्थ ही समझता था, गोशालेका.धर्ममें अपना आत्माको भावता हुवा सुखपूर्वक विचरताथा। एकदिन मध्याहके समय शकडालकुंभकार अशोक वाडीमे जाके गोशालेका मत था उसी माकाक धर्म प्रवृत्ति में वर्त रहा था। उस समय एक देवता शक डालके पास आया, वह देव आकाशमें रहा हुवा जिन्होंके पावोंमें धुघर गमक रहीथी। वह देव शकडालकुंभकार प्रति बोलता हुवा कि हे शकडाल ! महामहान जिसको उत्पन्न हुवा है केवलज्ञान केवल दर्शन तथा भून भविष्य वर्तमानको जानने वाले, जिन = अरिहंत = केवली सर्वज्ञ, त्रैलोक्य पूजित, देव मनुष्य असुरादिको अर्चन वन्दन पूजन करने योग्य, उपासना-सेवा-भक्ति करने योग्य, या
SR No.034234
Book TitleShighra Bodh Part 16 To 20
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherRavatmal Bhabhutmal Shah
Publication Year1922
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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