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भूमिका
- यद्यपि बौद्ध दर्शनमें आत्मा या जीव नामका कोई पदार्थ नहीं है तथापि सुख दुःख आदिमें 'मैं सुखको भोगता हूँ' अथवा 'मैं दुःखको भोगता हूँ' आदि प्रत्यय होते ही हैं। इस अनुभवको ही स्वसंवेदन प्रत्यक्ष या आत्मसंवेदन कहते हैं। : योगिप्रत्यक्ष स्पष्ट ही है वह योगियोंके ही होता है। : प्रत्यक्षका विषय भी एकक्षणवर्ती पदार्थ है। किन्तु अनुमानका विषय सामान्य लक्षण हैं । अर्थात् अनुमानके द्वारा अनेक क्षणोंकी बातको भी जान सकते हैं। ..
प्रत्यक्ष प्रमाणका फल प्रत्यक्ष ज्ञान है और ज्ञानका पदार्थके समान बनजाना ही प्रमाण है । क्योंकि उसीसे पदार्थका ज्ञान होता है । (न्या० पृ० २२ की नं० ३ की टिप्पणी)
. द्वितीय परिच्छेद ।
... आचार्य धर्मकीर्तिने जिस प्रकार प्रथम परिच्छेदमें प्रमाणका लक्षण किये बिना ही उसके भेद कर डाले हैं उसी प्रकार यहाँ भी अनुमानका लक्षण किये बिना ही पहिले अनुमानके स्वार्थानुमान और परार्थानुमान दो भेद ही किये हैं। हमारा अनुमान है कि यह बात धर्मोत्तराचार्य को भी अवश्य खटकी थी किन्तु प्रथम परिच्छेद में उन्हों ने इसको प्रगट न करते हुए स्वयं ही प्रमाणका लक्षण कह दिया है। क्योंकि उसमें लक्षण कहनेके लिये भेदवाले वाक्यसे पहिले एक और भी वाक्प था। किन्तु इस परिच्छेदमे पहिले ही वाक्यसे भेद चल पड़े। यहाँ टीकाकारको अपनी खटक शंकाके रूपमें प्रगट करनी ही पड़ी ( न्या० पृ० २९ पं०४) किन्तु आगे चलकर उन्होंने इसका स्वयं ही समाधान किया है कि भेदका कहना ही लक्षणका कहना है । क्योंकि दोनोंके लक्षण बिलकुल प्रथक २ होनेसे उनका एक लक्षण सम्भव नहीं है । ( न्या० पृ० २९ पं०५) किन्तु युक्तिसे विचारनेसे धर्मोत्तराचार्य की यह दलील कमजोर बैठती है। क्योंकि उन दोनोंके अत्यन्त पृथक् होते हुए भी अनुमानकी अपेक्षा तो उनमें एकता ही है। आचार्य धर्मकीर्तिने दोनों अनुमानोंके यह लक्षण किये हैं... 'तत्र स्वार्थ त्रिरूपालिङ्गाधनुमेये ज्ञानं तदनुमानम्' । न्यायबिन्दु प०२९ 'त्रिरूपलिङ्गाख्यानं परार्थानुमानम्' न्यायविन्दु पृ० ६१ ।