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________________ भूमिका २४ यहां यदि प्रमारूप फलको पुरुषमें रहनेवाला माना जावे तो बुद्धि वृत्ति प्रमाण होगी। क्योंकि पुरुषजन्य पूमा बुद्धिवृत्ति से ही हो सकती है अन्यसे नहीं हो सकती । अथवा यदि प्रमारूप फलको बुद्धिमेंही रहने वाला माना जावे (क्योंकि पुरुष तो ज्ञानसे बिलकुल पृथक् है ) तो इन्द्रियवृत्ति सन्निकर्ष आदि ही प्रमाण होंगे। क्योंकि तो मा पुरुष का साक्षी है उसको प्रमाता कहने में उसमें कर्तृत्वका आरोप करना पड़ेगा अथवा यदि पौरुषेयबोध और बुद्धिवृत्ति दोनोंको ही पुमा कहा जावेगा तो उक्त दोनोंको ही प्रमाण मानना पड़ेगा। योगदर्शन के पातंजल भाष्यमें प्रथम मत ही स्त्रीकार किया गया है । किन्तु सांख्यका प्राचीन मत उपरोक्त मत्तोंमेंसे दूसरा प्रतीत होता है । इस प्रकार सांख्य तथा योग दर्शनका प्रमाण अस्वसंवित और अचेतन है । प्रमाणका लक्षण न्यायदर्शन या वात्स्यायमभाष्य किसीमें भी नहीं मिलता । न्यायभाष्यकी टीका न्यायवार्तिकमें निम्नलिखित वाक्य मिलते हैं इन्द्रियं खलु अर्थप्रकाशकत्वात् पुमाणं....... . उपलब्धिहेतुः प्रमाणम् ।...... प्रमाणोत्पत्ताविन्द्रियार्थसन्निकर्षमपेक्षमाणाभ्यां पामातृपूमेया प्रमाणं जन्यते । अर्थात् अर्थकी प्रकाशक होने से इन्द्रियही प्रमाण है। क्योंकि उपलब्धिका हेतु प्रमाण होता है । और प्रमाणकी उत्पत्तिमें इन्द्रिय और अर्थके सन्निकर्षकी अपेक्षा करनेवाले. पुमाता और प्रमेय ज्ञानके जनक होते हैं । किन्तु अन्य ग्रन्थों को परिशलिन करनेसे पता चलता है नैयायिक मतमे भी सन्निकर्ष को ही प्रमाण माना है । वैषेषिक दर्शन के प्रशस्तपाद भाष्य में लिखा है बुद्धिरुपलब्धिर्ज्ञानं प्रत्यय इति पर्यायाः । 'तस्या सत्यप्यवेकवित् समासतो द्वेबिधे विद्या चाविद्या चेति । विद्यापि चतुर्विधा । प्रत्यक्ष लैङ्गिकस्मृत्यार्ष लक्षणा । अर्थात् बुद्धि, उपलब्धि, ज्ञान और प्रत्यय ये सब ही एकार्यवाची हैं। उसके (बुद्धिके ) अनेक भेद होने पर भी संक्षेपसे दो भेद है। विद्या और अविद्या । विद्याके भी चार भेद हैं । प्रत्यक्ष, अनुमान, स्मृति और आर्ष ।
SR No.034224
Book TitleNyayabindu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmottaracharya
PublisherChaukhambha Sanskrit Granthmala
Publication Year1924
Total Pages230
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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