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________________ १५ भूमिका धर्मकीर्तिने कुमारिलले गुप्तशिक्षाका ज्ञान प्राप्त करके उनका घर छोड़ दिया । कुमारिलसे उसको अपनी विशेष सेवा के बदले में कुछ धन भी मिला था। जिससे उसने अपनी यात्राकी रात्रिमें ब्राह्मणों को एक बड़ा भोज दिया । अब उसने कणाद के मत वाले कणादगुप्त और तीर्थमतके अन्य अनुयायियों को शास्त्रार्थके लिए आह्वान किया और उनसे शास्त्रार्थ करने लगा । शास्त्रार्थ बराबर तीन मास तक होता रहा जिसमें उसने अपने सभी विपक्षियोंको पराजित कर दिया और उनमें से बहु सो को बौद्ध बना लिया । इसपर कुमारिलको बड़ा क्रोध आया वह ५०० ब्राह्मणों को लेकर शास्त्रार्थ के लिये अग्रसर हुआ । कुमारिलने पुस्ताव किया कि शास्त्रार्थमें जो पराजित हो वह मार डाला जावे । किन्तु धर्मकीर्तिने जो कुमारिल की मृत्यु नहीं चाहता था आग्रह किया कि पराजित व्यक्ति विजेताके धर्म को स्वीकार कर ले | इस पुकार धर्मको पारितोषिकके रूपमें रखकर दोनों शास्त्रार्थमें भिड़ गये किन्तु विजयश्री अन्तमें धर्मकीर्तिके ही हाथ रही । कुमारिल और इसके ५०० अनुगामी बौद्ध हो गये । + उसकी दिग्विजय | धर्मकीर्ति ने इसके पश्चात् निर्ग्रन्थ ( दिगम्बर जैनी ) रघुवतिन् और दूसरों पर जो विन्ध्याचल में रहते थे विजय पायी । उसने द्रवली ( द्राविड) को लौटते हुए घोषणा करादी कि जो तयार हो आकर शास्त्रार्थ करे । तीर्थ लोगोकी अधेकांश संख्या भाग गयी और कुछने बिलकुल स्वीकार कर लिया कि वह युद्धमें उनके समान नहीं थे । उसने उस देश की उन सब धार्मिक संस्थाओं का जो अवनत दशा मे पड़ी हुई थीं, उद्धार किया और फिर गहन बनमें जाकर एकान्त सेवन करने लगा और ध्यान करने लगा । धर्मकीर्ति ने अपने जीवन की समाप्तिके दिनोंमें कलिंग देशमें एक विहार बनवाया और बहुतसे लोगोंको अपने धर्ममें दीक्षित कर परलोक वासी हुआ । उसके वह शिष्य जिनकी आत्मा ब्रह्मके समान हो गयीथी उसको दाहसंस्कार के लिये स्मशानभूमिमें ले गये । वहाँ एक पुष्पोंकी भारी बृष्टि हुई और सात दिन तक सारा देश सुगन्ध और रागों से भरा रहा।
SR No.034224
Book TitleNyayabindu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmottaracharya
PublisherChaukhambha Sanskrit Granthmala
Publication Year1924
Total Pages230
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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