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न्यायविन्दु
एकात्मन्यप्यसिद्धेः। नापि सात्मकाभिरात्मकाञ्च तस्यान्वयव्यतिरे. ..
कपोरभावनिश्चयः। सात्मक और निरात्मकसे भी उसके अन्वय और व्यतिरेकके अभावका निश्चय नहीं होता।
एकाभावनिश्चयस्यापराभावनान्तरीयकत्वात् । क्योंकि एक के अभावका निश्चय दूसरेके अभावके निश्चय का अव्यभिचारी होता है।
__ अन्वयव्यतिरेकयोरन्योन्यव्यवच्छेदरूपत्वात् । क्योंकि अन्वय और व्यतिरेक अन्योन्यव्यवच्छेद रूप हैं ।
अत एवान्वयव्यतिरेकयोः सन्देहाद नैकान्तिकः । अतएव अन्वय और व्यतिरेकमे सन्देह होनेसे अनैकान्तिक है।
साध्येतरयोरतो निश्चयाभावात् । क्योंकि इससे साध्य और उसके विरोधीके निश्चयका अभाव है।
एवं त्रयाणां रूपाणामेकैकस्य द्वयोर्द्वयोर्वा रूपयोगसिदौ संदेहे च यथायोगमसिद्धविरुद्धानकान्तिकास्त्रयो हेत्वाभासाः।
इसप्रकार तीनों रूपों में से एक २ अथवा दो २ रूपों के असिद्ध अथवा सन्दिग्ध होने पर यथायोग असिद्ध विरुद्ध और अनैकान्तिक ये तीन हेत्वाभास होते हैं। . विरुद्धाव्यभिचार्यपि संशयहेतुरुक्तः। स इह कस्मानोक्तः ?
(शंका) विरुद्धाव्यभिचारी भी संशयका कारण कहा गया है। उसको यह क्यों नहीं कहा?
( जो हेत्वन्तरसे सिद्ध किये हुए के विरुद्ध होता है वह व्यभिचारको प्राप्त नहीं होता । वही विरुद्धाव्यभिचारी है। अथवा जो वि. रुद्ध होते हुए अन्य साधनसे सिद्ध किये हुए धर्मके विरुद्ध साधन करनेसे व्यभिचारी हो वह अपने साध्यसे, व्यभिचरित न होनेसे विरुद्धाव्यभिचारी होता है। जैसे हेत्वन्तर धूमसे सिद्ध किये हुए अग्नि युक्त पर्वत के जल युक्त तालाब विरुद्ध है। अतएव तालाब पर्वत में व्यभिचरित नहीं हो सकता। अथवा जो विरुद्ध होते हुए अन्य साधन धूम से सिद्ध किये हुए धर्म अग्नि के विरुद्ध जल को सिद्ध न करनेसे