________________
(२२) जयपुर से पं. चारित्र विजय पं. चारित्र नंदन प्रादि ने मिरज़ापुर के वाचनाचार्य चन्द्रभाणजी को (संवत् १८६५) काती बदि १ को पत्र दिया उसमें लिखा है कि
"तथा इहां थी श्री सिद्धाचलजी की यात्रा निमित्त संघ जावसो हजार १० या १५ लोक हुसी । उपाध्याय श्री क्षमा कल्याणजी जावसी और पिण बीकानेर रा साधु वर्ग जावसीजी । पर म्हारे पिण परिणाम छै जी। पर तुम्हारे पत्र प्रायां निस्तूक पड़सीजी । अर आपरै पिरण यात्रा रा परिणाम होय तो मगसर सुदि ८ ताई तथा ११ तांइ अाया रहिज्यो जी। साथ हगांम रो छ जी। सिंघवी तिलोकचन्द लुणीया राजाराम गिड़ोया जोधपुर वालो एवं दोय जणा सिंघ निकालसैं । लाख ६ रुपीया तेवड्या छ जात्रा निमतें, सो मिगसर वदी २ कै रोज तो सर्व सहर निजीक निजीक है तिहां कंकोत्री मेलसी अर पोह सुदो १५ किसनगढ़ सुचालसी सर्व भेला पाली होसी तिहां समाह सुदी ५ मी पाली सु सिद्धाचल जी ने गिरनारजी प्रमुख कू विदा होसी जो। और पिरण श्रावक श्राव(क)णी घणा साथ होसी जी।
(पत्र के ऊपर)
उपाध्याय श्री क्षमाकल्याणजी गरिण की वंदना वाचज्यौ अर को छ श्री सिद्धगिरिजी रा यात्रा सारू वेगा मावेज्यो।'
(पत्र हमारे संग्रह में) उपाध्याय क्षमाकल्याणजी रचित शत्रुञ्जय स्तवनों से ज्ञात होता है कि
Aho! Shrutgyanam