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(२१) खंभात, गौड़ो, जीरावली पाव, क्षत्रियकुड, राजगृही प्रादि स्थानों की यात्रा भी स्तवनों से भलीभांति सिद्ध है।
गिड़िये राजाराम व संघवी तिलोकचन्द लणीया का संघ
रेल्वे द्वारा पर्यटन प्रारम्भ होने के पूर्व शत्रुञ्जयादि तीर्थो की यात्रायें करना अति-दुष्कर था। जब कभी कोई धनाढ्य लाखों रुपयों का खर्च व मार्ग का पूर्ण प्रबन्ध करने की योजना करता तभी ये यात्रायें की जा सकती थी। ऐसा सुअवसर बहुत समय के पश्चात् और महान् पुण्य से हो प्राप्त होता था। प्रत. उस समय सभी धार्मिक संघ में सम्मिलित होकर यात्रा का परमलाभ प्राप्त करने को उत्सुक रहा करते थे । महीनों के महीनों मार्ग में व्यतीत हो जाते। उस समय के धार्मिक जनों के तीर्थ यात्रा के भावोल्लास की आज कल्पना करना भी कठिन हो गया है।
संघपति शूभ मुहूर्त निश्चित करने के बाद आस-पास एवं दूरवर्ती स्थानों में आमन्त्रण पत्रिकायें भेजते और आस-पास के भावुक जन हजारों को ही नहीं पर लाखों की संख्या में वहां एकत्र हो जाते । साधु-साध्वियां • भी सैंकड़ों और हजारों की संख्या में एकत्र होते । दूरवर्ती (साधु एवं श्रावक संघ) अपने वहां से एक छोटा संव लेकर मार्ग में अनुकूलतानुसार बड़े संघ के साथ सम्मिलित होते । इस प्रकार एक बड़े संघ के साथ अनेकों स्थानों के सैंकड़ों या बहुत से छोटे छोटे संघ मार्ग में आकर सम्मिलित हो जाते।
___ संवत् १८६६ में भी ऐसा ही विशाल संघ सघवी तिलोकचन्द लुपीया और जोधपुर निवासी राजाराम गिड़िये के संघपतित्व में निकला था। उसका ज्ञातव्य संक्षिप्त वृतांत इस प्रकार है :
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