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अष्टमः परिच्छेदः।
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युध-बुध-गृध- क्रुध-सिध-मुहांज्झः ॥ २१७ ॥ जुज्झइ । बुज्झइ गिज्झइ । कुन्झइ । सिज्झइ । मुज्झइ ॥
समो लः ॥ २२२ ॥ स पूर्वस्य वेष्टते रन्त्यस्य द्विरुक्तोलो भवति । सवेल्लइ ॥
वोदः ॥ २२३ ॥ उदः परस्य तु वा भवति ॥ उज्वेल्लइ । उव्वेढइ॥
उवर्णस्यावः ॥ २३३ ॥ धातो न्रयस्योवर्णस्य अबादेशो वा भवति ॥ हुङ् । निण्हवइ॥ हु। निइवइ ॥ च्यु । च्युवइ ।। रु । रवइ ॥ कु । कवइ ॥ सू । सवइ । पसवइ ॥
स्वराणां स्वराः ॥ २३८ ॥
धातुषु स्वराणां स्थाने स्वरा वहुलं भवन्ति ॥ हवइ । हिवद ॥ चिणइ । चुणइ ॥ सहहणं । सहहाणं॥ धावइ । घुवइ॥ रुवइ । रोवइ ।। कचिनित्यम् । देइ । लइ । विहेइ । नासइ ॥ आर्षे । वेमि ॥
व्यञ्जनाददन्ते ॥ २३९ ॥ व्यञ्जनान्ताद्धातो रन्ते अकारो भवति । भमद । इलइ । कुगइ । चुम्बइ। भणः । उवसमाइ । पावइ । सिञ्चइ । रुन्धइ । मुसइ । हरइ । करइ । शवादीनां प्रायः प्रयोगो नास्ति ॥
स्वरादनतो वा ॥ २४० ॥ अकारान्तवर्जितात्स्वरान्ताद्धातो रन्ते अकारागमो वा भवति ॥ पाइ। पाअ । धाइ। धाअइ ॥ जाइ । जाअइ || झाइ झाइ ॥ जम्भाइ । जम्माअइ॥ उम्वाइ उव्वाअइ । मिलाइ । मिलाअइ । विक्के । विकेअइ ॥ होऊण । होअऊण (हाइऊण) अनत इतिकिम् । चिइच्छइ । हुगुच्छद्र ॥
जानातेः कर्मभावे-णध्वइ । ण । पक्षे जाणिजइ मुणिजइ ॥ णाइजइ ॥ नञ् पूर्वकस्य-अणाइज ॥ व्याहाः कर्मभावे-वाहिप्पइ । वाहरिजइ ॥ आरभेः कर्मणि-आढप्पइ, आढवीअइ॥ स्निह, सिचोः कर्मणि-सिप्पड ॥ ग्रहेः कर्मणि-घेप्पइ । गिहिजइ ॥स्पृशेः कर्मणिःछिप्पइ । छिविजय ॥
जीहइ । लजइ । लजत इत्यर्थः ॥ विरेचयतेः-ओलुण्डइ । उल्लुण्डइ । पल्हत्थइ । विरेअइ ॥ ताडयतेः-आहोडइ । विहोडइपक्षे-ताडेइ । उद्धृलयतेः-गुण्ठइ । उद्धृलेइ ।। नाशयतेः-विउडइ । नासवइ । हारवइ । विगालइ । पलावइ । नासइ ॥ उत्पूर्वस्य घटे य॑न्तस्य-उग्गइ। उग्घाड ॥ सम्भावयते:-आसवइ । सम्भावः ॥ उत्थवद । उल्लालइ । गुलगुञ्छइ । उप्पेलइ । उन्नावइ । उत्पूर्वस्य
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