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________________ प्रयाग-संग्रहालयकी जैन-मूर्तियाँ मकराकृतियाँ इस प्रकार बनी हुई हैं मानो संपूर्ण प्रतिमा उन्हींपर आधृत हो। इनके स्कन्ध प्रदेशपर रोमराजि व्यक्त कराने में कलाकारने बड़ी कुशलतासे काम लिया है। एक-एक रोम गिने जा सकते हैं। प्रतिमाके मस्तकके पृष्ठभागमें सुन्दर और सूक्ष्म खुदाई और रेखाओंवाला भामण्डल प्रभावलि प्रतिमाकी रमणीयतामें अति वृद्धि करता है, जैसा कि बुद्ध प्रतिमाओंमें भी पाया जाता है। सच कहा जाय तो इस प्रभावलिकी ललितकलाके कारण ही मूर्ति में कलात्मक आकर्षण रह गया है । मस्तकका भाग बुरी तरह खंडित है। केवल दायीं कर्णपट्टिकाका एक अंश बच पाया है। तदुपरि भागमें छत्रका दंड भी खंडित हो गया है । जिसप्रकार यक्ष या कुछ देवियोंकी मूर्तियोंमें दण्ड द्वारा छत्र रखनेका रिवाज था, जैनप्रतिमाओंमें भी कहीं-कहीं उसकी स्मृति दृष्टिगोचर होती है, जिसे उपर्युक्त प्रथाका भ्रष्ट संस्करण कह सकते हैं। छत्रके ऊपरके भागमें अशोक वृक्षकी पत्तियाँ स्वाभाविकतया प्रदर्शित हैं । उभय ओर पुष्पमाला लिये देवियाँ गगन विचरण कर रही हों, ऐसा आभास होता है । कलाकारने पाषाणपर बादलकी घटाएँ बहुत ही उत्तम ढंगसे व्यक्त की हैं। देवियोंका मुख मंडल प्रसन्ननताके मारे खिल उठा है। उपर्युक्त पंक्तियों के बाद बिना कहे नहीं रहा जा सकता कि न जाने इसका मुखमंडल कितना सुन्दर और आध्यात्मिक ज्योति पूर्ण रहा होगा। यह प्रतिमा चन्द्रप्रभुकी है और कौशाम्बीसे प्राप्त की गई है। प्रभावलीसे स्पष्ट है कि यह गुप्त कालीन कृति है। बायें भागपर पड़ी हुई प्रतिमा डील-डौलसे तो ठीक उपर्युक्त मूर्तिके अनुरूप ही है, परन्तु कलाको दृष्टि से कुछ न्यून है । निर्माणमें अन्तर केवल इतना ही है कि इसके पृष्ठ भागमें देवी और परिचारकके मध्यमें हस्तीपर आरूढ़ दोनों ओर दो देव-देवियाँ हैं, एवं निम्न भागमें मृगयुक्त खड़ा धर्मचक्र स्पष्ट बना हुआ है। यद्यपि इसका मस्तक सर्वथा खंडित नहीं, मुखका अग्रभाग खण्डित है । वक्षस्थलपर छैनीके चिह्न बने हैं । ग्रीवापर Aho! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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