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महाकोसलका जैन- पुरातत्त्व
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सरकारको । समाज तो इस ओर उदासीन है ही । मेरा तो निश्चित मत है कि गवेषणा करवाई जाय जो जैनाश्रित शिल्पकला के वैविध्यका ज्ञान अवश्य होगा । १०-१२ जगह से मुझे सूचना भी मिली है कि मैं वहाँ जाकर जैनमूर्त्तियाँ उठा ले आऊँ ? पर पाद - विहार करनेवाले के लिए यह संभव कैसे हो सकता है ? अपने परमपूज्य गुरुदेव उपाध्याय मुनि श्री सुखसागरजी महाराज एवं ज्येष्ठ गुरुभ्राता मुनि श्री मंगलसागरजी महाराजके साथ बिहार करते हुए मार्ग में जो-जो पुरातत्त्वकी सामग्री अनायास व अयाचित रूपसे मिल गई, उनका संग्रह अवश्य हो गया है । इस संग्रहमें जैनाश्रित कलाके उच्चतम प्रतीक ही अधिक हैं । मैं प्रस्तुत निबन्धमें, उनमें से, जो कला की दृष्टिसे महत्त्वपूर्ण हैं, वैविध्यको लिये हुए हैं और जो अभूतपूर्व कृतियाँ हैं, उन्हीं का परिचय दे रहा हूँ ।
खड्गासन-जिन-मूर्ति
प्रतिमा ५२३ " ऊँची है । सपरिकर इसकी चौड़ाई १५२ // है । इस प्रतिमा में प्रधान मूर्ति एकदम प्रधान है, क्योंकि शिल्प - स्थापत्य की दृष्टि से उसमें शरीर रचनाको सामान्यता के अतिरिक्त और कोई कलात्मक तत्त्व ध्यान आकृष्ट नहीं करता और न हमारी विवेचन बुद्धिको ही उद्बुद्ध करता है । अतः हम मुख्य मूर्त्तिकी अपेक्षा परिकर की ओर ही विशेष ध्यान देंगे । यह परिकर निस्संदेह सुन्दर है और मूर्तिकला की दृष्टिसे क्रान्तिकारी परिवर्तनोंका द्योतक है । साधारणतः परिकर में अष्टप्रतिहारियों या तीर्थंकरों के जीवनकी विशिष्ट घटनाएँ या जिन मूर्तियाँ ही खोदी जाती हैं; परन्तु यहाँ इनके सिवा भी अन्य सुन्दर और व्यापक कलात्मक उपकरणों और शैलियोंको अपना लिया गया है ।
मूर्ति के चरणोंके दोनों ओर उभय पार्श्वदोंके अतिरिक्त मूर्ति निर्माता दम्पति अवस्थित है । चारोंके मुख बुरी तरह क्षत-विक्षत हो गये हैं । यद्यपि इनकी शरीराकृति सुघड़ता एवं तदुपरि वस्त्राभूषणों का खुदाव काफ़ी
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