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________________ ( ३४ ) करने के कारण अपने जीवन भर उसका जनन नहीं करता । इस व्याप्ति के बल पर यह विपरीतानुमान खड़ा हो सकता है कि बीज को जीवन में कभी भी अङ्कुर का जनन नहीं करना चाहिये क्योंकि कुसूल में रहने के समय वह अङ्कुर का जनन नहीं करता । इस तर्क और विपरीतानुमान के फलस्वरूप कोई वस्तु स्थिर नहीं सिद्ध हो सकती क्योंकि स्थिरता पक्ष में उक्त तर्क के अनुसार एक बीज से लगातार अनेक बीज पैदा होते रहने की आपत्ति खड़ी होती है और उक्त विपरीतानुमान के अनुसार क्षेत्र में सविधि बोये गये बीज से भी अङ्कुर न पैदा होने की बिभीषिका खड़ी होती है, अतः वस्तुमात्रको क्षणिक मानना ही न्याय्य है । नैयायिक की ओर से इस बौद्धकथन का उत्तर इस प्रकार है उक्त तर्क और विपरीतानुमान नहीं हो सकते क्योंकि वे जिन नियमों के बल पर खड़े किये गये हैं वे जाति या व्यक्ति किसी पक्ष में नहीं बन सकते । जाति-पक्ष में उक्त नियम के ये दो आकार होंगे ( १ ) जिस जाति का कोई व्यक्ति किसी एक समय में जिस कार्य को करता है उस जाति का कोई न कोई व्यक्ति उस कार्य को अपनी स्थिति के सारे समय में करता है । ( २ ) जिस जाति का एक भी व्यक्ति अपनी स्थिति के पूरे समय में जिस कार्य को नहीं करता उस जाति का कोई भी व्यक्ति उस कार्य को कदापि नहीं करता । इनमें पहला नियम बीज जाति के किसी एक ही व्यक्ति में उसकी स्थिति के पूरे समय में अङ्कुरकारिता का आपादन करता है । अतः शेष सभी बीजों में काल-भेद से अङ्कुर की कारिता और अकारिता मानने में कोई विरोध नहीं होता । फलतः इन स्थिर बीजों में सत्ता हेतु क्षणिकता का व्यभिचारी हो जायगा, अतः उस हेतु से विश्व की क्षणिकता का साधन न हो सकेगा । दूसरा नियम बीजमात्र में अङ्कुरकारिता के अभाव का अनुमान कराने प्रवृत्त होता है । किन्तु यह नहीं हो सकता, क्योंकि दूसरे नियम में हेतु की असिद्धि और बाध ये दो दोष होंगे । हेतु की असिद्धि वौद्ध मत में होगी क्योंकि वे लोग क्षेत्रस्थ क्षणिक बीज को उसके जीवन के सारे समय में अङ्कुर-कारी मानते हैं । बाध दोष दोनों मतों में होगा क्योंकि सहकारि-युक्त बीज में अङ्कुरकारिता दोनों मतों में मानी जाती है । व्यक्ति में उस नियम के ये दो आकार होंगे - ( १ ) जिस जाति का कोई व्यक्ति किसी एक समय में जिस कार्य को Aho ! Shrutgyanam
SR No.034199
Book TitleJain Nyaya Khanda Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Badrinath Shukla
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1966
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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