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________________ ( ३३ ) लोक-सम्मान के अधिकारी नहीं हो सकते । जैन शास्त्रकार वैसा नहीं करते उनके वस्तु-वर्णन में व्यवहार के यथाप्राप्त रूप की रक्षा-दक्षता किमान रहती हैं इसलिये समस्त मेघावीवर्ग का समर्थन और समादर उन्हीं को प्राप्त होना चाहिये ! यत्कारणं जनयतीह यदेकदा तत् तत्सर्वदैव जनयेन किमेवमादि । प्राकपक्षयोः कलितदोषगणेन जातिव्यक्तयोर्निरस्यमखिलं भवतो नयेन ॥ १७ ॥ जो कारण किसी एक काल में जिस कार्य का जनन करता है वह अपने समग्र स्थिति-काल में उसका जनन करता है और जो जिस कार्य का जनन अपनी स्थिति के किसी एक क्षण में नहीं करता वह अपने समग्र स्थिति-काल में उसका जनन नहीं करता। इस प्रकार को व्याप्तियों की नींव पर भी तर्क और विपरीतानुमान के महल नहीं खड़े किये जा सकते क्योंकि जाति और व्यक्ति- इन दोनों पक्षों में जैन दर्शनकार के नैगम आदि नयों से प्रवृच्च होनेवाले न्वायनय से जिस दोष समूह का उल्लेख पहले किया गया है उसी से उक्त व्याप्तियों के बल पर होने वाले समस्त तर्क और विपरीतानुमानों का निरास हो जाता है । अर्थात् जैसे साधारण तृण के छेदन में कुठार जैसे महान् अस्त्र की आवश्यकता नहीं होती वैसे ही ऐसे असत् पक्षों के खण्डनार्थं जिसमें सभी प्रमाणों का समन्वय है ऐसे स्याद्वाद की आवश्यकता नहीं होती किन्तु वह कार्य अङ्गभूत प्रमाण से ही हो जाता है । श्लोक की विस्तृत व्याख्या इस प्रकार समझनी चाहिये : ——— जो वस्तु एक काल में जिस कार्य को उत्पन्न करतीं है वह अपने जीवन के पूरे काल में उस कार्य को उत्पन्न करती है, यह नियम है । इसके ष्टान्त बौद्ध और न्याय दोनों मतों में मिलते हैं । बौद्ध-मत से शब्दमात्र दृष्टान्त हो सकता है क्योंकि उस मत में शब्द का जीवन जन्मक्षण ही तक सीमित है और वह अग्रिम शब्द का जनन अपने जीवन के पूरे काल में करता है। न्यायमत में एक शब्द की धारा का अन्तिम शब्द भी अपने जन्मक्षणमात्र में ही जीवित रहता है, अतः उस मत से यह अन्तिम शब्द दृष्टान्त हो सकता हैं । इस व्माप्ति के आधार पर यह तर्क खड़ा हो सकता है कि अङ्कुर - कारी यदि अनेक क्षणों तक स्थिर रहे तो उसे अनेक क्षण तक अङ्कुर का जनन करना चाहिये । जो किसी एक काल में जिस कार्य का जनन नहीं करता वह अपने जीवन भर उसे नहीं करता, जैसे पत्थर का टुकड़ा किसी काल में अङ्कुर का जनन न ३ न्या० ख० Aho ! Shrutgyanam
SR No.034199
Book TitleJain Nyaya Khanda Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Badrinath Shukla
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1966
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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