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________________ ( ३५ ) करता है उस जाति के सारे व्यक्ति अपनी स्थिति के पूरे समय में उस कार्य को करते हैं। (२) जिस जाति का कोई व्यक्ति अपने पूरे समय में जिस कार्य को नहीं करता उस जाति का कोई व्यक्ति कदापि उस कार्य को नहीं करता। इन दोनों ही नियमों में व्याप्यत्वासिद्धि होगी, क्योंकि बौद्ध और न्याय दोनों ही मतों में कुछ बीज अङ्कर के उत्पादक और कुछ बीज अङ्कर के अनुत्पादक माने जाते हैं। पाषाण-खण्ड में सहकारियों का सन्निधान होने पर भी जो सार्वदिक अङ्करानुत्पादकता है वह इसलिये कि उसमें अङ्कर की स्वरूपयोग्यता ही नहीं है, एवं बीज में जो कादाचित्क अङ्करानुत्पादकता है वह इसलिये कि उसमें सहकारियों का सन्निधान सार्वदिक नहीं है । तस्यैव तेन हि समं सहकारिणा च सम्बन्धतद्विरहसंघटना विरोधः । ध्वस्तम्तवैव जिनराज ! नयप्रमाणे न स्यात् प्रभुः कथमिह क्षणिकत्वसिद्धये ॥ १८ ॥ उस एक ही व्यक्ति में उसी सहकारी के सम्बन्ध और असम्बन्ध की संघटना-अस्तिता विरुद्ध है। अतः जिस सहकारी का सम्बन्ध जिसमें नहीं है उसे उस सहकारी के सम्बन्धी से भिन्न मानना होगा और इस भिन्नता के उपपादनार्थ क्षणिकता का स्वीकार भी अवश्यमेव करना होगा। यह बौद्ध-कथन, हे जिनराज ! सङ्गत नहीं हो सकता, क्योंकि तुम्हारे नय और प्रमाणों द्वारा उक्त विरोध का परिहार हो जाता है । अतः वह विरोध क्षणिकता का साधन करने में किसी भी प्रकार समर्थ नहीं हो सकता। पूर्व कारिका की व्याख्या में नैयायिक की ओर से जो यह बात कही गयी कि एक ही कारण में सहकारियों के सन्निधान और असन्निधान से एक ही कार्य की उत्पादकता और अनुत्पादकता दोनों सम्भव हैं। उस पर बौद्धों की आलोचना निम्न प्रकार की है। कुसूलस्थ बीज में हवा, पानी, धूप, मिट्टी आदि सहकारियों का सम्बन्ध नहीं होता और क्षेत्रस्थ बीज में होता है। एक ही वस्तु का सम्बन्ध और असम्बन्ध ये दोनों एक-दूसरे के विरोधी हैं। दोनों का आश्रय एक नहीं हो सकता। इसलिये कुसूलस्थ और क्षेत्रस्थ बीज में परस्पर-भेद स्वीकार करना आवश्यक है। इसी प्रकार पूर्वक्षणस्थ बीज में उत्तरक्षण में होने वाले कार्य के कारणों का सम्बन्ध नहीं है और उत्तरक्षणस्थ बीज में है, अतः पूर्व और उत्तरक्षण के Aho ! Shrutgyanam
SR No.034199
Book TitleJain Nyaya Khanda Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Badrinath Shukla
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1966
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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