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________________ ( १६ ) इस मर्यादा को स्वीकार करने का कारण यही है कि जगत् में जितनी भी प्रमाणसिद्ध जातियाँ पायी जाती हैं उनमें कुछ ऐसी हैं जो अपने साथ रहने वाली दूसरी जाति के सभी आश्रयों में रहती हैं, जैसे मनुष्यत्व जाति ब्राह्मणत्व जाति के सभी आश्रयों में रहती है, और कुछ ऐसी हैं जो ऐसे किसी स्थान में नहीं रहतीं जहाँ उनके साथ में रहने वाली दूसरी जाति न रहती हो, जैसे ब्राह्मणत्व जाति ऐसे किसी स्थान में नहीं रहती जहाँ मनुष्यत्व जाति न रहती हो । तात्पर्य यह कि ऐसी एक भी प्रमाणसिद्ध जाति नहीं जो किसी अन्य जाति के कुछ आश्रयों में रहती हो और कुछ में न रहती हो और वह अन्य जाति भी उस जाति के कुछ आश्रयों में रहती हो और कुछ में न रहती हो । किन्तु कुर्वद्रूपत्व इसी प्रकार का है, वह शालित्व के कुछ आश्रयों में जैसे अ अङ्कुरकारी शालिबीजों में रहता है और कुछ आश्रयों में जैसे अङ्कुरानुत्पादक शालिबीजों में नहीं रहता, एवं शालित्व भी अंकुरकारी शालिबीज जैसे कुर्वद्रूपत्व के आश्रयों में रहता है और अङ्कुरकारी यवबीज जैसे उसके अन्य आश्रयों में नहीं रहता, इसलिये उसे जातिरूप में नहीं स्वीकार किया जा सकता । उक्त मर्यादा नहीं यहां यह शङ्का उठ सकती है कि जाति के विषय में मानी जा सकती क्योंकि ऐसी जाति भी प्रामाणिक मानी गयी है जो अपने आश्रय में रहने वाली अन्य जाति के कतिपय आश्रयों में रहती है और कतिपय में नहीं रहती और वह अन्य जाति भी उस जाति के कुछ आश्रयों में रहती है और कुछ में नहीं रहती, जैसे घटत्व जाति अपने आश्रय मृन्मय घट में रहने वाली पृथिवीत्व जाति और स्वर्णनिर्मित घट में रहने वाली तेजस्त्व जाति के घटरूप कतिपय आश्रयों में रहती है और लोष्ठ तथा अग्नि आदि अन्य आश्रयों में नहीं रहती है । एवं पृथिवीत्व और तेजस्त्व जाति भी क्रमेण मृन्मय और स्वर्णमय घटों में रहती है किन्तु स्वर्णमय और मृन्मय घटों में नहीं रहती । परन्तु यह शङ्का उचित नहीं है, क्योंकि मृन्मय और स्वर्णमय घटों में एक घटत्व जाति नहीं मानी जाती किन्तु मृन्मय और स्वर्णमय घटों में एक दूसरे से भिन्न दो घटत्व माने जाते हैं । और ये दोनों घटत्व उन जातियों की श्रेणी में आते हैं जो ऐसे स्थान में नहीं रहतीं जहां उनके साथ रहने वाली दूसरी जातियां न रहती हों, क्योंकि मृन्मय घट में रहने वाला घटत्व अपने साथ में रहने वाली पृथिवीत्व जाति से शून्य स्थान में नहीं रहता एवं स्वर्णमय घट में रहने वाला घटत्व अपने साथ की तेजस्त्व जाति से शून्य स्थान में नहीं रहता । जाति के विषय में ऊपर कही हुई मर्यादा स्वीकार न करने पर अर्थात् किसी एक आश्रय में साथ रहने वाली दो जातियों में एक व्यापक और दूसरे Aho ! Shrutgyanam
SR No.034199
Book TitleJain Nyaya Khanda Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Badrinath Shukla
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1966
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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