SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १८ ) बौद्ध जिस अङ्कुरकुर्वद्रूपत्व की कल्पना अङ्कुरकारी बीजों में करते हैं, उसके सम्बन्ध में ऐसा प्रश्न उठता है कि शालि, यव आदि बीजों की जो शालित्व, यवत्व आदि जातियाँ हैं उनका वह व्यापक है अर्थात् शालि, यव आदि के सारे बीजों में रहता है ? अथवा उन जातियों का विरोधी है अर्थात् उन जातियों के किसी आश्रय में नहीं रहता है ? पहले पक्ष में अङ्कुर न पैदा करने वाले बीजों में भी उसका अस्तित्व हो जाने से उसे अङ्कुरजनकता का नियामक नहीं माना जा सकेगा और दूसरे पक्ष में किसी भी बीज में उसका अस्तित्व न होने के कारण सहकारी कारणों से सन्निहित बीज से भी अङ्कुर का जनन न हो सकेगा, और यदि होगा तो उसे अङ्कुरजनकता की नियामकता न हो सकेगी, एवं उसकी शून्यता क्षेत्रस्थ और कुसूलस्थ दोनों बीजों में समानरूप से होने के कारण दोनों ही से अङ्कुर के जनन या अङ्कुर के अजनन की प्रसक्ति होगी । कुर्वद्रूपत्व में शालित्व आदि जातियों की व्यापकता तथा विरोधिता के विषय में जिस प्रकार के प्रश्न का उत्थान बताया गया है वैसा ही प्रश्न शालित्व आदि जातियों में कुर्वद्रूपत्व की व्यापकता एवं विरोधिता के बारे में भी उठता है । जैसे शालित्व कुर्वद्रूपत्व का व्यापक है या विरोधी ? पहले पक्ष में कुर्वद्रूपत्व के आश्रय यवबीज में भी शालित्व का अस्तित्व प्राप्त होगा, और दूसरे पक्ष में अङ्कुरकारी शालिबीज में भी उसका अभाव हो जायगा । । तात्पर्य यह है कि शालि, यव आदि के कुछ बीज अङ्कुर का जनन करते हैं और कुछ नहीं करते, अतः अङ्कुरकुर्वद्रूपत्व का अङ्कुर पैदा करने वाले सभी जाति के बीजों में माना जाना और अङ्कुर न पैदा करने वाले किसी जाति के किसी भी बीज में न माना जाना आवश्यक है इसलिए कुर्वद्रूपत्व शालित्व आदि जातियों का न व्यापक ही कहा जा सकता और न विरोधी ही, इसी प्रकार शालित्व आदि जातियाँ भी कुर्वद्रूपत्व का न तो व्यापक ही कही जा सकतीं और न विरोधी ही । फलतः कुर्वद्रूपत्व में शालित्व आदि जातियों का साङ्कर्य होने से जातिरूप में उसका साधन या समर्थन नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसे धर्म को जो किसी जाति के कतिपय आश्रयों में रहता हो और अन्य कतिपय आश्रयों में न रहता हो एवं वह जाति भी उस धर्म के कतिपय आश्रयों में रहती हो और कतिपय अन्य आश्रयों में न रहती हो, उसे जाति का पद नहीं प्राप्त होता; जैसे शरीरत्व और इन्द्रियत्व मनुष्यादि के शरीर और घ्राणेन्द्रिय जैसे पृथिवीत्व के कतिपय आश्रयों में रहते हैं और घट, पट आदि अन्य आश्रयों में नहीं रहते । एवं पृथिवीत्व जाति भी शरीरत्व और इन्द्रियत्व के और कुछ आश्रयों में जैसे जलीय शरीर एवं जलीय उन्हें जाति शब्द से व्यवहृत नहीं किया जाता । कुछ आश्रयों में रहती है इन्द्रियों में नहीं रहती अतः Aho ! Shrutgyanam
SR No.034199
Book TitleJain Nyaya Khanda Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Badrinath Shukla
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1966
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy