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________________ द्वारा योगियों के कायन्यूहपरिग्रह को भी. मान्यता नहीं दी जा सकती, क्योंकि योगी यदि एक ही समय में विभिन्न कर्मों के फलभोग के लिये विभिन्न शरीरों को धारण करेगा, तो एक ही समय में मनुष्य, देवता, असुर, कुत्ता, बिल्ली, शूकर आदि विभिन्न शरीरों में योगी की स्थिति माननी पड़ेगी जो योगी जैसे सुकृतशील आत्मा के लिये नितान्त अनुचित है। नात्मा क्रियामुपगतो यदि काययोगः प्रागेव को न खल हेतुररष्टमेन आधे क्षणेऽभ्यवहृतिः किल कार्मणेन मिश्रात् ततोऽनु तनुसर्गमिति त्वमोघम् ॥ ७५॥ आत्मा के व्यापकत्वमत में सर्वातिशायी दोष यह है कि जब आत्मा विभु होगा तो निसर्गतः निष्क्रिय होगा, अतः शरीरप्राप्ति के पूर्व प्रयत्नहीन होने के कारण वह अदृष्टवश समीप में आये हुये भी भौतिक अणुवों को आहार के रूप में ग्रहण न कर सकेगा, और आहार ग्रहण न करने पर शरीर का निर्माण न होगा, फलतः संसार में आत्मा का प्रवेश असम्भव हो जाने से इस प्रत्यक्षसिद्ध जगत् की उपपत्ति न हो सकेगी। यदि यह कहा जाय कि शरीरप्राप्ति के पूर्व आत्मा प्रयत्न से नहीं किन्तु अपने पूर्वाजित अदृष्ट से ही आहार आदि ग्रहण कर अपने शरीर का निष्पादन करता है, तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि यदि वह शरीरप्राप्ति के पूर्व विना प्रयत्न के केवल अदृष्ट से ही अपना कार्य करेगा तो शरीरप्राप्ति के पश्चात् भी वह अदृष्ट से ही अपने सब कार्य कर लेगा अतः प्रयत्न का सर्वथा लोप ही हो जायगा । इस लिये भगवान् महावीर का यह कथन ही सत्य है कि आत्मा केवल शक्तिरूप में ही व्यापक है किन्तु व्यक्तिरूप में वह शरीरसमप्रमाण है तथा शरीर और आत्मा का अन्योन्यानुप्रवेश होने के कारण वह सदैव सक्रिय है। आरम्भ में वह अपने कार्मण शरीर की क्रिया से आहार ग्रहण करता है और उसके बाद स्थूल शरीर की निष्पत्ति न होने तक औदारिक तथा कार्मण दोनों शरीरों की सम्मिलित चेष्टा से आहार ग्रहण करता है ।। वीर्यं त्वया सकरणं गदितं किलात्म. न्यालम्बनग्रहणसत्परिणामशालि । तेनास्य सक्रियतया निखिलोपपत्ति. स्त्वद्वेषिणामवितथौ न तु बन्धमोक्षौ ॥ ७६ ॥ ... भगवान् महावीर ने बताया है कि आत्मा में एक वीर्य-विचित्र सामर्थ्य होता है, वह वीर्य अनन्त सहकारी पर्यायों से सम्पन्न होता है, उन सहकारियों Aho! Shrutgyanam
SR No.034199
Book TitleJain Nyaya Khanda Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Badrinath Shukla
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1966
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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