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________________ ( १६४ ) . के सहयोग से उसमें विभिन्न भौतिक अणुवों के आलम्बन, ग्रहण और व्यक्तरूप में उनका परिणमन करने की अद्भुत उस वीर्य के सम्बन्ध से आत्मा सदैव सक्रिय होता है, अतः प्राप्ति के पूर्व से लेकर उसकी निष्पत्ति और अवस्थिति- पर्यन्त के सारे कार्य वह निर्वाध रूप से कर सकता है । भगवान् महावीर के इस उपदेश को शिरोधार्य करने वाले मनीषियों के मत में आत्मा के बन्ध और मोक्ष की यथार्थ उपपत्ति हो जाती है, पर जो नैयायिक भगवान् से द्वेष करते हैं उनके वचन को श्रद्धापूर्वक ग्रहण नहीं करते उनके मत में आत्मा के बन्ध और मोक्ष का यथार्थ प्रतिपादन नहीं हो सकता, क्योंकि उनके मत में आत्मा विभु होने से निष्क्रिय है अतः वह नूतन कर्मों के ग्रहणरूप बन्धन और संसारी क्षेत्र से निकल कर सिद्धिक्षेत्र में प्रवेशरूप मोक्ष को नहीं प्राप्त कर सकता । एकान्त नित्यसमये च तथेतरत्र स्वछावशेन बहवो निपतन्ति दोषाः । तस्माद् यथेश ! भजनोर्जित चित्पवित्र मात्मानमास्थ न तथा वितथावकाशः ॥ ७७ ॥ आहाररूप में उनके क्षमता होती है, स्थूल शरीर की आत्मा नितान्त नित्य है अथवा आत्मा सर्वथा अनित्य है, इन दोनों मतों में बहुत से दोष अनायास ही प्रयुक्त होते हैं । आत्मा नित्य जैसे जब होगा तो उसकी हिंसा न हो सकेगी, और जब हिंसा न होगी तो हिंसक समझे किसी को गोली से जाने वाले मनुष्य को पाप न लगेगा । और जब मनुष्य यह किसी का शिर काट देने पर वा कोई पाप न होगा तो उसे इन फलतः संसार में घोर नरसंहार के छिन्न-भिन्न हो जायगा । . दुष्कृत्यों के प्रवृत्त करने में होने से समाज का उड़ा कोई Aho ! Shrutgyanam समझ लेगा कि देने पर भी उसे यदि यह कहा जाय कि हिंसा का अर्थ स्वरूपनाश नहीं है को नित्य मानने पर उसकी अनुपपत्ति हो जिससे आत्मा किन्तु हिंसा का अर्थ यह है कि जिस विशिष्ट सम्बन्ध के होने से शरीर, प्राण और मन के साथ आत्मा के हिंसा की अप्रत्यक्ष आत्मा में जीवित रहने का व्यवहार होता है उस सम्बन्ध का नाश, अतः आत्मा के नित्य होने पर भी उस सम्बन्ध के नित्य न होने से अनुपपत्ति न होगी, तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि उक्त सम्बन्ध के होने से उसका नाश भी अप्रत्यक्ष होगा, अतः उक्त-नाश अमुक के होता है और अमुक के न होने पर नहीं होता है इस प्रकार के अन्वयव्यतिरेक का ज्ञान न हो सकने से उसके प्रति किसी कारण का निश्चय न हो होने पर हिचक न होगी, सारा ढांचा ही
SR No.034199
Book TitleJain Nyaya Khanda Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Badrinath Shukla
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1966
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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