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________________ (१६२) रखने के लिये इस प्रकार के कार्यकारणभाव माने जाते हैं कि अमुक जीव के अमुक जन्म. में होने वाले सम्पूर्ण भोग के प्रति अमुक शरीर, अमुक मन और अमुक शरीर के साथ अमुक मन का संयोग आदि कारण है, पर जब एक छिपकली के विभिन्न शरीर खण्डों में विभिन्न मनों से उसी जन्म के विभिन्न भोग उस छिपकली को होंगे तब उक्त कार्य-कारणभावों में व्यभिचार होने से उनके लोप का जो भय उपस्थित होगा, आत्मा के विभुत्वपक्ष में उसका कोई परिहार न हो सकेगा। . जैन मत में इस प्रकार की आपत्तियों का भोई भय नहीं है क्योंकि उस मत में छिपकली के शरीर-खण्डों में उसके मूल शरीर का एवं उन शरीरखण्डों में स्थित मन में उसके मूलशरीर में स्थित मन का एकान्त भेद नहीं होता। प्रत्यंशमेव बहुभोगसमर्थने तु स्यात्संकरः पृथगदृष्टगवृत्तिलामे। मानं तु मृग्यमियतैव हतश्च काय व्यूहोऽपि योगिषु तवागमिकैः परेषाम् ॥ ७॥ - पूर्वोक्त दोषों के परिहारार्थ यदि यह कहा जाय कि जब छिपकली का शरीर कटने पर उसके कई खण्ड हो जाते हैं तब उन खण्डों को स्वतन्त्र भोगायतन नहीं माना जाता, किन्तु उस दशा में भी छिपकली के भोग का आयतन उसका मूलशरीर ही होता है, शरीर के खण्ड तो मूलभूत भोगायतन के अंश-अवच्छेदक मात्र होते हैं, अतः उस समय भिन्न भिन्न अवयव रूप अवच्छेदकों के सम्बन्ध से एक ही भोगायतन में छिपकली को अनेक भोग सम्पन्न होते हैं, इसलिये भोगायतन का भेद न होने से एक ही जन्म में जन्म एवं मरण के अनेकत्व आदि दोषों की आपत्ति नहीं हो सकती, तो यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि अवच्छेद कभेद से यदि अनेक भोगों का एककालिक सामानाधिकरण्य माना जायगा तो एक ही समय में अत्यन्त विसदृश कम्पुजों की फलोन्मुख वृत्ति का उदय होने पर विभिन्नजातीय भोगायतनों द्वारा भी एक जीव में विभिन्न भोगों के सांकर्य को आपत्ति होगी, इस आपत्ति के प्रतीकार में यदि यह कहा जाय कि एकजातीय भोगायतन अन्यजातीय भोगायतन की प्राप्ति में प्रतिबन्धक है, अतः मनुष्य-शरीर के रहते पशु आदि शरीर की प्राप्ति के अशक्य होने से उक्त आपत्ति नहीं होगी, तो यह कहना ठीक न होगा क्योंकि उस प्रकार के प्रतिबध्यप्रतिबन्धकभाव में कोई प्रमाण नहीं है । उक्त आपत्ति के अप्रतीकार्य होने के कारण ही भगवान् महावीर के आगमज्ञ मनीषियों Aho ! Shrutgyanam
SR No.034199
Book TitleJain Nyaya Khanda Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Badrinath Shukla
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1966
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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