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भावप्रकाश निघण्टुः भा. टी. ।
ते बल्या लघवः शीताः किंचिद्वातकरास्तथा । विष्टम्भिनोज्वरघ्नाश्च पित्तरक्तकफापहाः ॥ ११९ ॥ उपरोक्त लड्डू सदृशडी बेलनके बड्डू बनावे उन को मोतीचूर के लड्डू कहते हैं । मोनीचू के लड्डू - बलकारक, हलके, शीतल, किंचित वातकारक, विष्टम्भी, ज्वरनाशक और पित्तरक्त तथा
कफनाशक
हैं ॥ ११९ ॥
दुग्धकूपिका ।
तण्डुलचूर्णविमिश्रितनष्टक्षीरेण सान्द्रपिष्टेन । हृढकू पिकां विदध्यात्ताञ्च पचेत्सर्पिषा सम्यक् १२० अथ तां करितमध्य घनपयसा पूर्णगर्भाञ्च । सट्टकमुद्रितवदनां सर्पिषि सुपक्ववदनाञ्च ॥ १२१ ॥ अथ पाण्डुखण्डपाके स्नपयेत्कर्पूरवासिते कुशलः । अब दुग्धकूपिका सा बल्या पित्तानिलापहा चैत्र । वृष्या शीता गुर्वी शुक्रकरी बृंहणी रुच्या ॥ १२२ ॥ विदधाति काय पुष्टि दृष्टिं दूरप्रसारिणीं चिरम् |
चावलों के चूर्ण में मावा ( खोहा ) मिलाकर मजबूत कुप्पी बनावे, उसको घोंमें छोडकर सेकले वे, पकनेपर निकालकर बीच में छेदकर गाढा मिश्री युक्त दूध भर देवे बौर सहकसे मुख खूब बंद करके फिर
में से जब उसका मख सिकजाय तब चतुर मनुष्य कपूर से मुवाचित खाँड की चासनी में पागलेवे, उसको दुग्धकूपिका कहते हैं ।
यह दुग्धकूपिका- बलकारक, पित्त तथा कफनाशक, वृष्य, शीतल भारी, वीयंत्रद्धक, पुष्टिकारी, रुचिकारक, शरीरकी पुष्टि करनेवाली और दृष्टिको दूरदर्शक करनेवाली है ॥ १२०-१२२ ।।
अत्र कुण्डलिनी ( जलेबी ) ।
नूतनं घटमानीय तस्यान्तः कुशलो जनः ।