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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (३६९) स्थूलपुच्छो रक्तनेत्रो बचदेहः स नाकुलः । गुहाशया वातहरा गुरूष्णा मधुराश्च ते । स्निग्धा बल्या हिता नित्यं नेत्रगुह्यविकारिणाम १५ सिंह, बाथ, भेडिया, रीछ, तरक्षु ( चीतल ), चीता, बधु ( नौला), गीदड और बिलाव इत्यादि जीव गुहाशय ( गुफामें रहनेवाले) कहाते हैं। जो मोटी पूँछवाला और लाल नेत्रोंयुक्त तथा पधके सदृश देहवाला होता है उसको नाकुल (न्यौला ) कहते हैं।
सम्पूर्ण गुहाशयोंका मांस-वातनाशक, भारी, गरम, मधुर, स्निग्ध, बलदायक और नेत्र तथा गुदाके रोगवालोंको सर्वदा हितकारी है ॥ १४ ॥ १५॥
अथ पर्णमृगाणां (पत्ते खानेवाले
प्राणियोंकी ) गणना गुणाश्च । वनौका वृक्षमार्जारो वृक्षमर्कटिकादयः । । एते पणमृगाः प्रोक्ताः सुश्रुताचैर्महर्षिभिः ॥ १६॥ वनौका वानरः । वृक्षमार्जारी वृक्षबिडालः।। वृक्षमर्कटिका 'रूपी वानर' इति लोके । स्मृताः पर्णमृगा वृष्याश्चक्षुष्याः शोषिणे हिताः।
खासाशंकासशमनाः सृष्टमूत्रपुरीषकाः ॥ १७॥ वानर, पृक्षपर रहनेवाले विलाप (चन बिलाव) और वृक्षमर्कटी (रूपी) ये सुश्रुतमादि महर्षियोंने पर्णमृग कहे हैं।
पर्णमृगोंका मांस-वीर्यपदक, नेत्रोंको हितकारी, शोष (क्षय ), रोगवालोंको हितकारी, मळ तथा मूबको निकालनेवाला और श्वास, बवा सीर तथा खांखीको नष्ट करते हैं ॥ १६ ॥ १७ ॥
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