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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (३६३) लवंगकुसुमं देयं नखस्याभावतः पुनः ॥ ३९ ॥ कस्तूर्य्यभावे कक्कोलं क्षेपणीयं विदुर्बुधाः ।। काकोलस्याप्यभावे तु जातीपुष्पं प्रदीयते ॥४०॥ सुगंधिमुस्तकं देयं कर्पूराभावतो बुधैः। कर्पूराभावतो देयं ग्रंथिपर्ण विशेषतः ॥ ११ ॥ कुंकुमाभावतो दद्यात्कुसुम्भकुसुमं नवम् । श्रीखण्डचन्दनाभावे कर्पूरं देयमिष्यते ॥ ४२ ॥ अमावे त्वेतयाद्या प्रक्षिपेद्रक्तचन्दनम् । रक्तचन्दनका भावे नवोशीरं विदुर्बुधाः ॥ ४३ ॥ मुस्ता चातिविषाभावे शिवाभावे शिवा मता। अभावे नागपुष्पस्य पद्मकेसरमिष्यते ॥४४॥
तालीसपत्रके अभाव में स्वर्णताली, भारंगीके अभावमें तालीस अथवा कंटकारीजटा, कचकके प्रभावमें पांसुलवण, तथा मुलहटीके प्रभारमें धाके फलोंका प्रयोग करना चाहिये । अम्लवेतके अभावमें वुक्र, दाखके अभाग्में काश्मरी फल, और उन दोनोंके अभावमें बंधूकका फूल लेना चाहिये। नखके अभाधम लवंगका फूल, कस्तुरीके प्रभावमें कंकोल और कंकोलके अभाव जावत्री, कपूरके अभाव में सुगंधित नागरमोथा, तथा विशेष करके प्रन्थिपर्ण लेना चाहिये । केसरके अभावमें कुसुम्भेका नया फूल, भऔर श्रीखण्ड चन्दनके अभावमें कपूर देना चाहिये। श्रीखण्ड चन्दन तथा कपूर के अभाव रक्तचन्दन और रक्तचन्दनके अभाव में खप्त, अती. सके अभावमें नागरमोथा, भूमि मामले के अभावमें प्रामळा, नागपुष्पके अभावमें पद्मकेशर लेना चाहिये ॥ ३६-४४॥
मेदाजीवककाकोली ऋद्धिद्वंद्वेऽपि चासति । वरीविदार्यश्वगंधावाराहीश्च क्रमात् क्षिपेत् ॥४५॥