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(३५६)
भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.।
वृहण, दादकारक, दुर्गन्धयुक, विशद् तथा भारी होता है । पुगना मद्य-रुचिकारक, हृदयको प्रिय, सुगंधित गुणोंवाला, हलका, नाडीको शुद्ध करनेवाला तथा कृमि, कफ और वायुको नष्ट करनेवाला होता है ॥ ३९ ॥ ३० ॥
सात्त्विके गीतहास्यादि राजसे साहमादिकम् ३३॥ तामसे निंद्यकर्माणि निद्रां च मदिरो चरेत् । मदिरा पीकर सात्त्विक मनुष्य गाने तथा हसने लग जाता है। रजो. गुणप्रधान मनुष्य साहस आदिको करता है । तथा तमोगुणी मनुष्य निध कर्मोको करता है ॥ ३१ ॥
विधिना मात्र या काले हितैरन्नैपथावलम् ॥३२॥ प्रहृष्टो यः पिबेन्मयं तस्य स्यादमृतोपमम् । विधिले ठीक मात्रामें हितकारक अनों के साथ अपने बन के अनुसार बो मनुष्य सन्नतापूर्वक मद्यको पीता है उसके लिये यह अमृत समान्छे गुणकारी है। ३२॥
मन्धनाशः। मुस्तैलबालगुडजीरकधान्यकैला यश्चर्वयन् सदसि वाचमभिव्यनक्ति । स्वाभाविकं मुखजमुज्झति पूतिगधं गंधं च मद्यलशुनादिभवं च नूनम् ॥३३॥
- इति संधानवर्गः नागरमोथा, कवाबचीनी, कुट्ट, जीरा, धनियां और इलायची इनको चबाकर जो मनुष्य सभामें बोलता है तो उसके मुखकी स्वाभाविक तथा मद्य लशुन आदि कोसे उत्पन्न हुई दुर्गन्ध नष्ट हो जाती है ॥ ३३ ॥ इति श्रीवैद्यरत्न पं०--रामप्रसादात्मन--विद्यालङ्कार--श्रीशिवशर्मवैद्य यात्रिकत--शिवप्र
काशिकाभाषायां हरीतक्यादिनिघण्टौ सन्धानवर्गः समाप्तः ॥ २०॥
Abo! Shrutavanam
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