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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.
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(३४१) वृक्षोंके अन्दर रहनेवाली जो पुष्पका रस लेकर शहद बनायें उसको पूतिका कहते हैं। उनका घोके सदृश बनाया हुआ जो शहद होता है उसको वनचर लोग पौत्तिक कहते हैं। पौत्तिक मधु-रुक्ष, उष्ण, विदाहि तथा पिन, दाह, रक्तविकार वात इनके करनेवाला है बौर प्रमेह ग्रंथि आदि रोग, क्षत और शोष इनमें दिया हु मा हितकारी है ॥ १३ ॥ १४ ॥
छात्रमधुगुणाः ।
वरटाः कपिलाः पीताः प्रायो हिमवतो वने ॥ १५ ॥ कुर्वेति छत्रकाकारं तज्जं छात्रं मधु स्मृतम् । छात्रं कपिलपीतं स्यात् पिच्छिलं शीतलं गुरु ॥१६॥ स्वादुपाकं कृमिश्वित्ररक्तपित्तप्रमेहजित् । भ्रमतृण्मोह विष त्तर्पणं च गुणाधिकम् ॥ १७ ॥
हिमालय में कपिन और पीत वर्णवाली, छत्र के आकारवाली मक्खियां जो मधु बनाती हैं उसको छात्र कहते हैं। छात्र- कपित और पीले वर्णका, पिच्छिल, शीतल भारी, स्वादुपाकी तथा कृमि, श्वित्र, रक्तपित्त, और प्रमेहको जीतने वाला है । एवं भ्रम, तृषा, मोह और विषको नष्ट करनेवाला और गुणों में उत्तम है ।। १५-१७ ॥
मधूकवृक्षान्निर्यासं जरत्काश्रमोद्भवाः । स्रवत्थाय तदाख्यातं श्वेतकं मालवे पुनः ॥ १८ ॥ तीक्ष्णतुंडास्तु याः पीना मक्षिकाः षट्पदोपमाः । अर्घास्तास्तत्कृतं यत्तु तदार्घ्यमितरे जगुः ॥ १९ ॥ आध्य मध्वतिचक्षुष्यं कफपित्तहरं परम् । कषायं कटुकं पाके तितं च बलपुष्टिकृत् ॥ २० ॥
जरत्कारुके आश्रम में उत्पन्न हुए मधूक ( महुए के ) वृचसे बहते हुए निर्यास (गोंदुकी) आर्ध्य कहते हैं । मालवेमें इसे श्वेतक कहते हैं । अन्यों