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भावप्रकाश निघण्टुः भा. डी. ।
जलेन रहितं दुग्धमतिपक्वं यथायथा । तथातथा गुरुस्निग्धं वृष्यं बलविवर्द्धनम् ॥ २७ ॥
गायका धारोष्ण दूध अर्थात जो दूध निकालते ही पी लिया जावे वह दूध - बलदायक, लघु शीतल, अमृत के समान, दीपन, त्रिदोषनाशक है । धारोष्ण दूध ठण्डा हो जानेपर पीने योग्य नहीं होता। गायका दूध तो धारोष्ण प्रशस्त है और भैंसका धाराशीत अर्थात् दुहने के बाद शीतल हुआ प्रशस्त गुणोंवाला है । भेडका दूध शीतल तथा बकरीका गरम पथ्य है । कच्चा दूध - अभिष्यन्दि, भारी, कफ और आमको बढानेवाला है इस लिये गाय और भैंस के दूध के अतिरिक्त सब कच्चे दूध अपथ्य हैं । स्त्रीका दूध तो कच्चा ही हितकारी है, गरम नहीं । गरम किया हुआ दूध कफ और बातको नष्ट करता है, गरम करके ठण्डा किया हुबा दूध पितको नष्ट करता है तथा बराबरका जल डालकर उबालकर रहा हुआ ब्रेवल दूध कच्चे दूध से भी हलका है। जल रहित दूधको जितना पकाते जायेंगे वह उतना २ भारी, स्निग्ध, वीर्य तथा बलवर्धक होता चला जाता है ।। २२-२७ ।।
पीयूष कलाक्षीरशाकतक्रपिंडमोरटाः ।
क्षीरं तत्कालसूताया घनं पीयूषमुच्यते । नष्टदुग्धस्य पक्कस्य पिंडः प्रोक्तः किलाटकः ॥ २८॥ अपक्वमेव यन्नष्टं क्षीरशाकं हि तत् पयः दध्ना तक्रेण वा नष्टं दुग्धं बद्धं सुवाससा ॥ २९ ॥ द्रवभागेन रहितं यत्तत्रपिंडः स उच्यते । नष्टदुग्धभवं नीरं मोरटं जय्टोऽब्रवीत् ॥ ३० ॥ पीयूषश्च किलाटं च क्षीरशाकं तथैव च । तकपिंड इमे वृष्या बृंहणा बलवर्द्धनाः ॥ ३१ ॥ गुरवः श्लेष्मला हृद्या वातपित्तविनाशनाः ।