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भावप्रकाश निघण्टुः भा. टी. 1
रक कफनाशक, दीपन, हल्का, मधुर, पाकमें कटु, वातनाशक औरं पित्तको न करनेवाला है ॥ ४० ॥ ४१ ॥
सारसम् ।
नद्याः शैलादिरुद्वायायत्र संश्रुत्य तिष्ठति । तत्सरोजदलच्छन्नं तद्भः सारसं स्मृतम् ॥ ४२ ॥ सारसं सलिलं बल्यं तृष्णाघ्नं मधुरं लघु । रोचनं तुवरं रूक्ष बद्धमूत्रमलं स्मृतम् ॥ ४३ ॥
पर्वत मादिसे रुका हुआ जहाँ नदी का जल झर २ कर इकट्ठा होता है और वह कमलके पत्रोंसे ढका हुआ हो उस स्थान के जल को सारस कहते हैं । सारस जल-बलकारक, तृष्णा नाशक, मधुर, हलका, रुचिका - रक, कसैला, रूक्ष और मूत्र तथा मल को बाँधनेवाला होता है ॥ ४२ ॥४३॥
तडागम् ।
प्रशस्त भूमिभागस्थो बहुसंवत्सरोषितः । जलाशयस्तडागः स्यात्ताडागं तजलं स्मृतम् ॥ ४४ ॥ ताडागमुदकं स्वादु कषायं कटुपाकि च । वातलं बद्धविण्मूत्रममृकपित्तकफापहम् ॥ ४५ ॥
अनेक वर्षोंका पुराना और उत्तम स्थानपर बना हुआ तालाब तडाग होता है । तडागका जल-स्थादु, कसैला, कटुपाकी, वातकारक, मल तथा मूत्रको बाँधनेवाला और रक्तविकार, पित्त तथा कफको नष्ट करने - वाला है ॥ ४४ ॥ ४५ ॥
वापी |
पाषाणैरिष्टका भित्री बद्धः कूपो बृहत्तरः । ससोपाना भवेद्रापी तज्जलं वाप्यमुच्यते ॥ ४६ ॥