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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.
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रक, हलका, दीपन, अभिष्यन्दको न करनेवाला, विशद, कटु और कफ तथा पित्तको दूर करनेवाला है। जो नदियें शीघ्र बहनेवाली तथा निर्मळ जलवाली होती हैं वह हलके जलवाली होती हैं। जो नदियें मन्द २ बह नेवाली, शैवाल (काई ) से ढकी हुई तथा मलीन हैं उनका जल भारी होता है । जो गंगा, शतद्रु, सग्यू, यमुना आदि नदियां हिमालय से उत्पन्न होती हैं, तथा मार्गमें पत्थरों से प्राप्त होती हैं, उनका जल पथ्य तथा गुण में उत्तम है । सह्याद्रिसे उत्पन्न हुई श्रेणी, गोदावरी आदि नदिय कुष्टको, किंचित वात तथा कफको करती हैं । नदी, तालाब, सरोवर, कूप अथवा झरने आदिके जलके गुण और दोष उस स्थान के अनुसार जानने ॥ ३२-३७ ॥
औद्भिदम् । विदार्य भूमिं निम्नां यन्महत्या धारया स्रवेत् । तत्तोयमौद्भिदं नाम वदंतीति महर्षयः ॥ ३८ ॥ औद्भिदं वारि पित्तनम विदाह्यतिशीतलम् । प्रीणनं मधुरं बल्यमीषद्वातकरं लघु ॥ ३९ ॥ जो जन नीचेकी भूमिको विदीर्ण करके बडी धारा में बहे उसको महर्षि बौद्भिद कहते है । आद्भिद-पिमनाशक, दाइको न करनेवाला, अत्यन्त शीतल, तृप्ति करनेवाला, बलकारक, वायुको किंचित कुपित करने वाला और इनका होता है ॥ ३८ ॥ ३९ ॥
नैर्झरम् | शैलसानुस्रवद्वारिप्रवाहो निर्झरोझरः ।
स तु प्रस्रवणश्वापि तत्रत्यं नैर्झरं जलम् ॥ ४० ॥ नैर्झरं रुचिकृनीरं कफघ्नं दीपनं लघु । मधुरं कटुपाकं च वातलं स्यादपित्तलम् ॥ ४१ ॥
जो जलका प्रवाह पर्वतकी चोटियोंपर से झरता है उसको निर्भर और प्रण करते हैं । वहांके जलको निर्झरहते हैं। निर्भर जल-इचिका