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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. ।
हिमवत्पादशिखरे कंकुष्ठमुपजायते । तत्रैकं रक्तकालं स्यादन्यद्धेमप्रभं स्मृतम् ॥ १६१ ॥ पीतप्रभं गुरु स्निग्धं श्रेष्ठ कंकुष्ठमादिशेत् । श्यामं रक्तं लघु त्यक्तसत्त्वं नेष्टं हरेणुकम् || १६२॥ कंकुष्टं काककुष्टं च वरांगं रंगदायकम् । कंकुष्ठं रेचनं तिक्तं कदुष्णं वर्णकारकम् ॥ १६३ ॥ कृमिशोथोदरा मानगुल्मानाहकफापहम् ।
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कंकुष्ठ दो प्रकारका होता है, एक नलक और दूसरा रेणुक । कंकुष्ठ हिमवान पहाडके शिखरों में उत्पन्न होता है। इनमें एक कंकुष्ठ लाल बर्णका होता है। दूसरा स्वर्णकीसी कांतिवाला होता है । इनमें सुवर्ण कीसी कांतिवाला पीला, भारी और चिकना कंकुष्ठ श्रेष्ठ होता है । तथा श्याम रक्त वर्णवाला हल्का, सत्वरहित हरेणुका अच्छा नहीं होता । कंकुष्ठ, काककुष्ठ, बरांग और रंगदायक यह कंकुष्ठके नाम हैं। कंकुष्ठ, रेचक, तिक्त, कटु, उष्ण और व्रणकारक है। तथा कृमि, शोथ, उदर, आध्मान, गुल्म, अफारा और कफके हरनेवाला है ।। १६०-१६३ ॥ रत्ननिरुक्तिः ।
धनार्थिनोजनाः सर्वै रमंतेऽस्मिन्नतीव यत् ॥ १६४ ॥ ततो रत्नमिति प्रोकं शब्दशास्त्रविशारदैः ।
धनकी इच्छावाले लोग हर समय इनमें अत्यन्त रमण करते हैं, इस लिये शब्दशास्त्र के जाननेवालोंने इनको रत्न कहा है ॥ १६४ ॥
रत्ननाम |
रत्नं क्लीवे मणिः पुंसिस्त्रियामपि निगद्यते १६५ ॥ तत्तु पाषाणभेदोऽस्ति मुक्तादि च तद्दुच्यते । अमरः ।
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