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भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टा.
अशोधितो गंधक एककुष्ठ करोति तापंविषमंशरीरे । सौख्यं च रूपं च बलं तथौजः शुक्र निहत्येवकरोति चामम्
पूर्वकाल में श्वेतद्वीपमें क्रीडा करती हुई पार्वतीका मासिक रजसे भरा हुआ वस्त्र स्नान करते हुए जो क्षीर सागर में गिरा, उसमें से निकले. हुए पार्वती के रजते गंधक उत्पन्न हुई। गंधक, गंधिक, गंधपाषाण सौगंधिक, बली, बलवसा यह गंधकक नाम है । अंग्रेजीमें इसे Sulphur कहते है । यह रक्त, पीत, श्वत और कृष्ण भेदसे चार प्रकारकी होती है। लाल गंधक स्वर्ण बनाने में काम प्रांती है। पीली रसायन कम्र्म्ममें और श्वत व्रणादि लेपनों में काम प्राती है। कृष्ण सबमें श्रेष्ठ है, परन्तु मुशकिल से मिलती है। गंधक - कट्ट, तिक्त, उष्णवीर्य, दस्तावर, पित्तवर्द्धक, वटुपाकी तथा खुजली, विसर्प, कृमि, कुष्ठ, क्षय, प्लीहा, कफ और वात विकारोंको नाश करती है। तथा रसायन है, विन शोधनकी हुई गंधक खाने से कुष्ठ, विषमज्वर, बल, वर्ण, बीच्यं और प्रोजकी हानी तथा अनेक प्रकारके ग्रामविकार, आदि विकारोंको करती है ।। १०३-१०९ ॥
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हिगुलम् |
हिंगुल दरद म्लेच्छमिंगुल पूर्णपारदम् । मक्षिरंगं सुरंगं च नाम्ना कमरबंधनम् ॥ दरदस्त्रिविधः प्रोक्तश्वर्मारः शुकतुडकः ॥ ११० ॥ इंसपादस्तृतीयः स्याद्गुणवानुत्तरोत्तरम् । चर्मारः शुक्लवर्णः स्यात्सपीतः शुकतुंडकः ॥ १११ ॥ जपाकुसुम संकाशो हंस पादो महोत्तमः। तिक्तं कषायकटुहिंगुलंस्यान्नेत्रामयघ्नं कफपित्तहारि । हृल्लास कुष्ठज्वरकामलाश्चप्लीहा मवातौचगरंनिहंति ।