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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (२२९) का सेवन करता है, उसके शरी में अनेक रोग, कुष्ट तथा देहका नाश तक हो जाते हैं । ८७--१०१ ॥
उपरसाः । गंधो हिंगुलमभ्रतालकशिलाः स्रोतोजन टकण, राजावर्तकचुंबकौ स्फटिकया शंखः खटीगैरिकम् । कासीसं रसकंकपदसिकताबोलाश्च कंकुष्ठकं, मौराष्ट्रीचमताअमीउपरमाःमूतस्यकिंचिद्गुणैः१०२॥ गंधक, हिंगुल, अभ्रक, हरिताल, मनसिल, स्रोतोऽअन, टंकण, राजावर्त चुबक, स्फटिक (फरकिरी ) शंख, खडिया, गेरू, कसील,. रसक, को डये, चालु, बोन, कंकृष्ठ और गजनी यह सब उपरस कहे जाते हैं। क्योंकि किसी अंशमें सूक्ष्म रूपले इनमें भी रप्लके गुण होते हैं।॥ १०२॥
गन्धकम्।
श्वेतद्वीपे पुरा देव्याः कोडंत्या रजसाप्लुतम् । दकूलं तेन वप्रेण नातायाः क्षीरनीरधौ ॥ १.३॥ प्रसृतं यद्रजस्तस्माद्धकः समभूत्तदा। गंधको गंधिकश्चापि गंधपाषाण इत्यपि ।। १०४॥ सौगंधिकश्च कथितो बलिबलवसापि च । चतुर्धा गन्धक प्रोक्तो रक्त-पीतःसितोऽसितः ॥१०॥ रक्तो हेमक्रियासूतः पीतश्चैव रसायने । व्रणादिलेपने खेतः कृष्णः श्रेष्ठः सुदुलभः ॥१०६॥ गन्धकः कटुकस्तिको वीर्योष्णस्तुवरः सरः। पित्तलः कटुका पाके कण्डुवीसपजन्तुजित् ॥१०७॥ इंति कुष्ठक्षयप्लीहकफवातान् रसायनः ॥ १०८ ॥