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अभ्यर्थना ।
सर्व शक्तिवाले प्रभू, हे जगके कर्तार ! अपने आयुर्वेदकी, अब तो सुनो पुकार ॥ अपनी सृष्टीका हित कर जो आयुर्वेद बनाया है । सृष्टीकी रचना से पहले ही जो तुमको भाया है ॥ जिसमें सब सृष्टीका हितकर सच विधि मार्ग बताया है । जिसको कह उपवेद विधाताने प्रचार कराया है ॥
इसी आपके वेदपर, अब संकट रहा छाय । हे इसके प्यारे प्रभू, लीजे इसे बचाय ॥
प्रथम तो इसके ही पृजक अब नाना कष्ट उठाते हैं । तिसपर भी नैतिक बलसे कोई इसे डराने आते हैं । कहीं वृथा कोइ एक्ट बनाकर इसे दबाने आता है । कोई झूठे विज्ञापन दे इसको बदनाम कराता है ||
मण्डली इस तरह करे नित्य बदनाम | पर यह सबको दे रहा, फिर पूरण काम ॥ फिर भी पूरण काम सभीका सच विधि यह हितकारी है । धर्म, अर्थ अरु काम मोक्षतकका भी यही प्रचारी है ॥ इसमें ही सब स्वास्थ्यवृत्त और धर्म कर्म बतलाया है । मिलते सच उभयलोक सुख जिसे हृदय यह भाषा है |
अंग अंग है भरा, निःस्वारथ उपकार | छिपी नहीं इसकी दशा, क्या क्या कहूँ पुकार ॥
Aho! Shrutgyanam