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भूमिका ।
धार्मिक उन्नतिको छोडकर और अनेक प्रकारकी उन्नति संसार इस समय अपने अपने ढंग से कर रहा है। इस उन्नति में आयुर्वेदिक उन्नतिवा लोने भी आगे पांव बढाया। जिससे कुछ प्रायुर्वेदिक हिन्दी उर्दू के पत्र आयुर्वेदिक ग्रन्थ तथा उनकी जैसो तैसी भाषा भी आगे आने लगी ।
इस समय सब वैद्य ऋषियोंकी आज्ञानुसार शास्त्रको विधिवत गुरुयोंसे पढकर सब विधि व्यवस्था अपने पूज्य गुरुयोंसे सीखकर और अनुभव प्राप्त करने के अनन्तर संसार के हित में धम्मनुसार अपना भी हितसाधन कर उभयलोक कल्याणकारी मार्गका अवलम्बन करनेवाले मिल सकें यह बात तो है ही नहीं, किन्तु वे गुरु के वैद्य स्वयं गीता पढे हुए इस समय शास्त्रज्ञ भी बहुत मिल सकते हैं। जो व्याख्यान और लेखोंमें एवं प्रस्ताव विज्ञानमें कहीं न कहीं प्रतिवर्ष अपना पाण्डित्य प्रकाशित कर डालते हैं। ऐसी अवस्था में बिना गुरुओं की सेवा और विना ही मर्यादा के सबको आयुर्वेद - शिरोमणि बननेका अभ्यास बडे वेगसे बढता जाता है ।
मैंने दश पन्द्रह वर्षमें अपने पूज्य पिताजी के पास स्वयं सर्वसिद्धान्ती वननेवाले बहुत से रोगी आते देखे हैं। ऐसे सर्वतन्त्र स्वतन्त्रोंको देख कभी २ मुझे हास्य और कभी २ वैद्यराज बनने की रुचि हो आती थी, परन्तु पूज्य पिताजी आयुर्वेदिक ग्रन्थोंको कभी हाथ भी लगाने नहीं देते थे । दम दोनों भाइयों के भाग्य में व्याकरण, न्याय और काव्यप्रकाश ही रहता था । हमको छः महीने पढकर घर भाग जानेवाले वैद्यराजों पर बडी ईर्षा रहती थी ।
हमने यह कष्ट 'शास्त्री' के कठिन ग्रन्थों और बी० ए० के स्टीवसन आदि तक भोगा । फिर हमको आयुर्वेद की प्रथम श्रेणीका विद्यार्थी बनाया गया । और ग्रन्थोंके साथ साथ पारेके संस्कार तथा सर्कारी औषधालयों में उपवैद्योंसे प्रारम्भ कर कभी कभी वैद्यके स्थान पर काम करनेको भी समय हम
लगाया गया। अब पंद्रह वर्ष
के
बाद चरक संहिताके पढ़ते
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