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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. ।
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तिक्ता कषाया मधुरा वातकृत्कटुपाकिनी ॥ १७७॥৷ दाहतृष्णाबला सारुकुष्ठपित्तज्वरापहा ॥
गंडदूर्वा, गंडीरी, मत्स्याक्षी, शकुलादनी यह दूवकेि नाम हैं । गंडदूर्वा-शीतल, लोहा यादि धातुओंको द्रवित करनेवाली, ग्राही, हल्की, तिक्त, कषाय, मधुर, वातकारक, कटुपाकी तथा दाइ, प्यास, कफ, रक्तविकार, कोढ़, पित्त और ज्वरका नाश करनेवाली है ॥ १७६ ॥ १७७ ॥
विदारीकन्दः । वाराही कंदः ।
वाराहीकंद एवान्यश्चर्मकारालुको मतः ॥ १७८ ॥ अनूपे स भवेद्देशे वाराह इव लोमवान् । विदारी स्वादुकंदा चसातु क्रोष्ट्री सिता मता ॥ १७९ ॥ इक्षुगंधा क्षीरवली क्षीरशुक्का पयस्विनी । वाराही वरदा वृष्टिर्वदरेत्यभिधीयते ॥ १८० ॥ विदारी मधुरा स्निग्धा बृंहणी स्तन्यशुक्रदा । शीता स्वर्य्या मूत्रलाच जीवनी बलवर्णदा ॥ १८१॥ गुरुः पितास्रपवनदाहान्हंति रसायनी ।
वाराहीकन्दको भेषरबन्द भी कहते हैं। वाराहीकन्दकी सजल देशमें होनेवाली एक जातीको चर्मकारालु भावमिश्र मानते हैं, परन्तु कालकाके समीप पहाड़ोंपर जो भेवरकन्द है वही वाराहीकंद है । यह सूअर जैसे रोमवाला कन्द होता है । विदारी, स्वादुकंश, क्रोष्ट्री, सिता, इक्षुगंधा, क्षीरवल्ली, क्षीरशुक्ला, पयस्विनी यह विदारीकन्दके नाम हैं। शिमले के पहाड़ पर इसको सराली कहते हैं। वाराही, वरदा, घृष्टि, वरद यह भी वाराहीकन्द के नाम हैं । विदारीकन्द-मधुर, स्निग्ध, बृंहण, वीर्यवर्द्धक, शीतल, स्वरकारक, मूत्रबद्धक, जीवन देनेवाला, बल और वर्ण बढ़ाने वाला, भारी, रसायन तथा पित्त, रक्तविकार, वात और दाहको नष्ट करनेवाला है ॥ १७८--१८१ ॥
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