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मध्य काल में लोग पुस्तक-दान का काफी माहात्म्य मानते थे । दान देने के जिर भी पुस्तकें लिपिबद्व होती थीं प्राचीन यात्रियों का इतनी बड़ी संख्या में प्रतियों को विदेश ले जाना भी यही सिद्ध करता है कि उस समय दान में पुस्तकें बहुत दी जाती थी, क्योंकि बौद्ध भिक्षु कोई योरुप या अमेरिका के धनाढ्य टूरिस्ट तो थे नहीं कि यहाँ तोड़े खोलकर पुस्तकें मोल ले लेते । उन्हें जितनी पुस्तकें मिलीं वह गृहस्थों, भितुओं, मठों या राजाओं से दान में मिली होंगी।
यह पुस्तकें प्रायः राजदरबार, मंदिर, पाठशाला, विहार, मठ, उपाश्रय आदि से संबद्ध पुस्तकालयों में या व्यक्तिगत रूप से निर्मित पुस्तक-संग्रहाँ में रखी जाती थीं। संस्कृत भाषा में इन पुस्तकालयों को 'भारती भांडागार' या 'सरस्वती भांडागार' कहते हैं। इसी 'भांडागार' शब्द से आधुनिक 'भंडार' शब्द की उत्पत्ति हुई है। बाण' स्वयं लिखता है कि उस के पास एक पुस्तक-वाचक था, जिस का कर्तव्य उसे पुस्तकें पढ़ कर सुनाना था । इस से अनुमान किया जा सकता है कि बाण
विप्राय पुस्तकं दत्त्वा धर्मशास्त्रस्य च द्विज । पुराणस्य च यो दद्यात् स देवत्वमवाप्नुयात् ॥ शाखदृष्टया जगत् सवै सुश्रुतश्च शुभाशुभम् । तस्मात शास्त्रं प्रयत्नेन दद्याद् विप्राय कार्तिके ॥ वेदविद्यां च यो दद्यात "स्वर्गे कल्पत्रयं वसेत् । आत्मविद्याश्च यो दद्यात् तस्य संख्या न विद्यते ॥ त्रीणि तुल्यप्रदानानि त्रीणि तुल्यफलानि च । शास्त्रं कामदुघा धेनुः पृथिवी चैव शाश्वती ॥
पद्म पुराण, उत्तर खंड, अध्याय ११७ (?) वेदार्थयज्ञशास्त्राणि धर्मशास्त्राणि चैव हि । मूल्येन लेखयित्वा यो दद्याद् याति स वैदिकम् ॥ इतिहास-पुराणानि लिखित्वा यः प्रयच्छति । ब्रह्मादानसमं पुण्यं प्राप्नोति द्विगुणीकृतम् ॥
गरुड पुराण, अध्याय २१५ (?)
(शब्दकल्पद्रुम में 'पुस्तक' शब्द के विवरण से उधृत) २. लिपिमाला पृ० १६ ।
३. हर्षचरित. तृतीय उच्छवास, जीवानंद का दूसरा संस्करण पृ० २००-२०२ अथवा काँवल का अनुवाद पृ० ७२-७३ ।
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